पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/६

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। तुलसीदासजी का जीवनचरित की अर्था न सन्सि न च ‘चति मां दुराशा, त्यागान संकुचति दुर्ललित मनो से । याचा व लायंबकरी स्वच्ध व पाएं , प्राणाः स्वयं नजत किं प्रविलम्बितेन ॥ धन पात नहींआशा छोड़ती नहींमूढ़ मन दान देने से हिचकता है एं नहीं, माँगने से लघुता प्राप्त होती है, आत्महत्या में पाप है ! अरे प्राणो ! हम को क्यों देरी करते हो ? स्वयं क्यों नहीं निकल जाते " दारिद्रान संताः शान्तः सन्तोपवारिणा । याचकाशाविधातान्ताहकेनोपशाम्यति ॥ ‘दरिद्रतारूपी अग्नि का संताप तो सन्तोषरूपी जल से शान्त हो 6 गया, पर याचकों की आशा के विघात से हदय में जो जलन हो रही है, वह छे कैसे शान्त हो १ ब्रजत अजत प्राणा आर्थिनि व्यर्थतां गते । पश्चादपि हि गन्तव्य क्ब सार्थक पुनरीडशाः ॥ प्राणो ! याचक निराश होकर चले गए, अब तुम भी चल दो । पीछे । हो भी तो जाना ही होगा, पर ऐसा साथ कहाँ मिलेगा ' जिस दरिद्रता से पराजित होकर माघ ने शरीर त्याग कियाउसी से दरिद्रता पर विजयी होकर तुलसीदास ने बह अक्षयभण्डार दान किया है, है जिससे कोई याचक कभी निराश होकर नहीं लौटेगा। दरिद्रता पर हैं तो तुलसीदास की यह विजय साधारण विजय नहीं है। मनुष्यों का कल्याण करने के लिए तुलसीदास ने धन की लालसा हूं। से ही नहीं छोड़ीउन्होंने स्त्री का भी त्याग कियाजिसके सम्बन्ध में नीलपट्ट के के कवि कहता है स्त्रीबल से गर्वित कामदेव रति का हाथ अपने हाथ में लेकर के ऊँ अट्टहास करके कहता है। अयं स भुवनत्रय प्रथित संयमी शंकरो विभर्ति वआपाधुना विर कातः कामिनी । अनेन किल निर्धिता वयमिति प्रियाया’ कर करेण परिलालगंजयति जतहासः स्मरः ॥ ‘देखो, यह शंकर , जो तीनों मुबन में जितेन्द्रिय प्रसिद्ध है। ये । > क्षण-भर भी अपनी प्रिया का वियोग नहीं सह सकते। उसे अपने अर्धन में । ) +एसएफ केस