पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

छाल-ए । ८१ हो उन्होंने एक राजपुत्र को सच्चिदानन्द और परमधाम कहकर प्रणाम किया है और उसकी छवि देखकर वे इतने मगन हुये कि अब तक उनके हृदय में प्रीति रोकने से भी नहीं रुकती । राम् ब्रह्म जो ब्यापक बिरज' अज अल अनीह अभेद ।। सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद ॥५०॥ जो ब्रह्म सब में व्याप्त, माया-रहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छा और भेद राम) से रहित है और जिसे वेद भी नहीं जानते, वह क्या देह धारण करके मनुष्य हो ॐ सकता है ? । म् विष्नु जो सुर हित लरतनु धारी ॐ सोउ सर्वरय् जथा त्रिपुरारी ॐ खोजइ सो कि, अग्य इव नारी की ग्यानधाम श्रीपति असुरारी जो विष्णु भगवान् देवताओं के हित के लिये मनुष्य-शरीर धारण करते हैं, वे भी शिवजी के समान सर्वज्ञ हैं। वे ज्ञान के भण्डार, लक्ष्मीपति और असुरों के शत्रु विष्णु, अज्ञानी की तरह स्त्री को कैसे खोजेंगे ? राम) संभु गिरा पुनि मृण न होई ॐ सिव सर्बश्य जान सव कोई रामो ॐ अस संसय मन भयउ अपारा ॐ होइ न हृदय प्रवोध प्रचारा | फिर शिवजी के वचन भी झूठे नहीं हो सकते । सब कोई जानते हैं कि राम है शिवजी सर्वज्ञ हैं। ऐसी अपार शङ्का सती के हृदय में उठी। किसी तरह भी है उनके हृदय में ज्ञान का प्रसार नहीं होता था । ॐ जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी के हर अंतरजामी सव जानी । के सुनहु सती तव नारि सुभाऊ $ संसय अस न धरिय उर काऊ । यद्यपि भवानी ने प्रकट नहीं कहा, पर अन्तर्यामी शिवजी सव जान ॐ गये । वे बोले-हे सती ! सुनो, तुम्हारा स्वभाव स्त्री का है। ऐसा सन्देह मन । में कभी न रखना चाहिये। जासु कथा कुम्भज रिषि गाई को भगति जासु मैं सुनिहिं सुनाई है। सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा ॐ सेवतः जाहि सदा मुनि धीरा राम जिनकी कथा का गान कुम्भज (अगस्त्य ) ऋषि ने किया और जिनकी । १. माया-रहित । २. मिथ्या । ३. कभी ।