पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/८६

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है इहाँ संभु अस. मने अनुमाना ॐ दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना । राम मोरेहु कहे न संसय जाहीं ॐ विधि विपरीत भलाई नाहीं इधर शिवजी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि दक्ष की पुत्री सती का एके कुशल नहीं है। जब मेरे समझाने से भी सन्देह दूर नहीं होता, तब तो विधाता एमा ही उलटे हैं। अब सती का कुशल नहीं है। । होइहि सोइ जो राम रचि राखी को करि तक बढ़ावइ साखा ॐ अस कहि लगे जपन हरिनामा ॐ गई सती जहँ प्रभु सुखधामा जो कुछ रोम ने रच रक्खा है, वही होगा। तर्क-वितर्क करके कौन बात से बढ़ाये । ऐसा कहकर शिवजी भगवान् को नाम जपने लगे और सती वहाँ गई, जहाँ सुख के धाम प्रभु रामचन्द्रजी थे। राम पुनि पुनि हृदय बिचारू करि धार सीता कर रूप। राम आगे होइ चलि पंथ तेहि जेहि आवत नरभूप ॥५२॥ | सती बार-बार मन में विचार कर और सीताजी का रूप धारण करके उस ती राह में आगे होकर चलीं, जिस राह से मनुष्यों के राजा रामचन्द्रजी आ रहे थे। ॐ लछिमन दीख उमा कृत बेषा ॐ चकित भये भ्रम हृदयँ विसेफ एम् कहि न सकत कछु अति गंभीरा ॐ प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा सती के बनावटी रूप को लक्ष्मणजी ने देखा, जिससे उनके हृदय में वड़ा राम भ्रम हो गया और वे चकित हुये। वे बहुत गम्भीर हो गये; कुछ कह नहीं सकते । । थे; क्योंकि धीर बुद्धि लक्ष्मण रामचन्द्रजी के प्रभाव को जानते थे। सती कपटु जानेउ सुरस्वामी की सबदरसी सब अंतरजामी होम, सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना के खोइ सरबग्य राम गवाना मी ॐ सती के कपट को देवताओं के स्वामी रामचन्द्रजी जान गये; क्योंकि वे राम) सब कुछ देखने वाले और सबके हृदय की बात जानने वाले हैं। जिनके स्मरण- (राम मात्र से अज्ञान का नाश हो जाता है; वही सर्वज्ञ भगवान् रामचन्द्रजी हैं। गुम्वा सती कीन्ह चह तहहुँ दुराऊ' ॐ देखहु नारि सुभाउ प्रभाऊ राम । निज माया बलु हृदयँ बखानी ॐ बोले विहँसि राम झुटु वानी १. छिपाव ।