पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/८९

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| ८६ मक्कम झाला ८, है , फिर आँख खोलकर देखा, तो दक्ष-कुमारी सती को वहाँ कुछ भी न देखे के तिम पड़ा। वे बारम्बार रामचन्द्रजी के चरणों को सिर नवाकर वहाँ चलीं, जहाँ राम ॐ शिवजी थे। राम : गईं समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात। - लीन्हि परीछा कवन बिधि कुहड्डु सत्य सब बात्।५५॥ जब पास पहुँचीं, तब शिवजी ने उनसे हँसकर कुशल-प्रश्न पूछा और है राम कहा- तुमने किस तरह परीक्षा ली, सत्य-सत्य सब बातें कहीं। ॐ सतीं समुझि रघुबीर . प्रभाऊ ॐ भय बस सिद सन कीन्ह दुराऊ । एम् कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं ॐ कीन्ह प्रनासु तुम्हारिहि नाईं। * सती ने रामचन्द्रजी के प्रभाव को समझकर डर के मारे महादेवजी से छिपाव किया और कहा–स्वामिन् ! मैंने कुछ भी परीक्षा नहीं ली। आपही की * तरह मैंने भी उन्हें प्रणाम किया। ॐ जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई ॐ मोरे मन प्रतीति अस सोई लामो तब संकर देखेउ धरि ध्याना ॐ सती जो कीन्ह चरित सबु जाना आपने जो कहा वह झूठ नहीं हो सकता, मेरे मन में ऐसा विश्वास होता (राम) है । तब शिवजी ने ध्यान करके देखा और सती ने जो चरित किया था, सब । ॐ जान लिया । ए बहुरि राममायहिं सिरु नावा के प्रेरि' सतिहि जेहि झूठ हावा * हरि इच्छा भावी बलवाना % हृदय विचारत संभु सुजाना * : फिर उन्होंने रामचन्द्रजी की माया को प्रणाम किया, जिसने प्रेरणा करके * सती के मुंह से झूठ कहला दिया। सुजान महादेवजी ने अपने जी में विचार किया ॐ कि हरि की इच्छारूपी भावी बड़ी प्रबल है। अर्थात् भगवान् जो चाहते हैं, वही * होता है और जो होनहार होता है, वह होकर रहता है। - ऊँ सती कीन्ह सीता कर वेषा के सिव उर भयउ विषाद विसेषा । एम जौ अब करउँ सती सन प्रीती ॐ मिटइ भगति पथ होइ अनीती। । सती ने सीता का वेष धारण किया, यह जानकर शिवजी के हृदय में १. प्रेरणा करके।