पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/९०

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बड़ा खेद हुआ। उन्होंने सोचा, जो अब मैं सती से प्रीति करती हैं, तो भक्ति मार्ग मिटता है और बड़ा अनर्थ होता है। ॐ परस पुनीत न जाइ तजि कियें प्रेस बड़ पाप ।। प्रगटिन हत महेसुङ्छ हृदयँ अधिक संताए ॥५६॥ सती परम पवित्र हैं, इसलिये इनको छोड़ा भी नहीं जा सकता और प्रेम करने में भी बड़ा पाप है। प्रकट रूप से महादेवजी कुछ नहीं कहते हैं; पर उनके हृदय में बड़ा दुःख है। तब संकर प्रभु पद सिरु नावा सुमिरत रामु हृदयँ अस वा । एहि तन सतिहि भेंट सोहि नाहीं ॐ सिव संकल्धु' कीन्ह मन माहीं तब शिवजी ने प्रभु रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवायी और उनको । स्मरण करते ही मन में यह आया कि सती के अपने इस शरीर से मेरी भेट | ॐ नहीं हो सकती । शिवजी ने अपने मन में यह सङ्कल्प कर लिया । राम्रो अस विचारि संकर मतिधीरा ॐ चले भवन सुमिरत रघुवीरा चुलत गगन भइ गिरा सुहाई ॐ जय महेस भलि भगति दृढ़ाई ऐसा विचार कर स्थिरबुद्धि शिवजी रामचन्द्रजी का स्मरण करते हुये अपने * स्थान ( कैलाश ) को चले । चलते समय सुन्दर आकाशवाणी हुई---हे शंकर, आपकी जय हो । आपने भक्ति की अच्छी दृढ़ता की ।। | अस पल तुम्ह बिनु करइ को अना” ॐ राम भगत समरथ भगवाना हो ॐ सुनि नभगिरा सती उर सोचा ॐ पूछा सिवहिं समेत सकोचा . आपके बिना ऐसी कठिन प्रतिज्ञा कौन कर सकता है ? आप रामचन्द्रजी के भक्त हैं, समर्थ हैं और भगवान् हैं। इस आकाशवाणी को सुनकर सती के रामो मन में चिन्ता हुई और उन्होंने सकुचाते हुए शिवजी से पूछा कीन्ह कवन पन' कहहु कृपाला ॐ सत्यधाम प्रभु दीनदयाली जदपि सती पूछा बहु भाँती ॐ तदपि न कहेउ त्रिपुर अाराती “हे कृपालु ! कहिए, आपने कौन-सी प्रतिज्ञा की है ? हे प्रभो ! आप 'सत्य के धाम और दीनदयालु हैं ।” यद्यपि सती ने बहुत तरह से पूछा, पर । । त्रिपुरारि शिवजी ने कुछ नहीं कहा।। | १. दृढ़ निश्चय । २. आकाश । ३. वाणी । ४. अन्य । ५. प्रतिज्ञा । ६. शत्रु ।।