पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/९२

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®©©©®©-$$$ $) ।, , छल- छ। ॐ तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन : वैठे बट तर करि कमलासन राम्रो संकर सहज सरूपु सँभारा $ लागि समाधि अखंड अपारा | वहाँ फिर अपने प्रण को स्मरण करके शिवजी वरगद के पेड़ के नीचे हैं रामो पद्मासन लगाकर बैठ गये । महादेवजी ने अपना स्वाभाविक स्वरूप सँभाला । । उनकी अखण्ड और अपार समाधि लग गई।

  • सती बसहिं कैलास तब अधिक सोचु मन साहिं। एम * मरमुन को जानकछुजुरा सस दिवस सिराहिँ।५८। ।

तब सती कैलाश पर रहने लगीं। उनके मन में बड़ा दुःख था । इसका राम रहस्य कोई कुछ भी नहीं जानता था । एक-एक दिन युग के समान बीतने राम लगा। सुमो नित नव सोच सती उर भारा ॐ कच जैहउँ दुख सागर पारा मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना ॐ पुनि पति वचनु भृषा करि जाना संती के जी में दिन-दिन नया और भारी सोच हो रहा था कि इस शोक* सागर से कब पार जाऊँगी । मैंने जो रामचन्द्रजी का अपमान किया और फिर । पति के वचन को झूठ माना, । सो फल मोहि विधाता दीन्हा ने जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा । अब विधि अस बुझि नहिं तोहीं संकर बिमुख जिबसि मोहीं उसका फल मुझे विधाता ने दिया और जो उचित था वही किया { पर ॐ हे विधाता ! अब तुझे यह उचित नहीं है कि शंकर के प्रतिकूल होने पर भी मुझे राम जीवित रखता है। । कहि न जाइ कछु हृदय गलानी ® मन महुँ रामहं सुमिरि सयानी एम जौं प्रभु दीनदयाल कहाचा ॐ आरति हरन वेदु जसु गावा उनके हृदय की ग्लानि कुछ कही नहीं जाती । बुद्धिमती सती ने मन में है। । रामचन्द्रजी को स्मरण किया और कहा--हे प्रभो ! यदि आप दीनदयालु कहलाते हैं और यदि वेद ने दुःख मेटने वाली कहकर आपका यश गाया है। तौ मैं बिनय करउँ कर जोरी ॐ छूटइ चेगि देह यह मोरी । जौं मोरेंसिव चुन सनेहू ॐ मन क्रम बचन सत्य व्रतु पाहू १. बीतते हैं। २. चाहिये । ३. शीघ्र, जल्दी ।। (E) (E)::E):8:(E)