पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/९५

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। ६२ । अभिनय || पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ। ए ! तो मैं जाउँ कृपायतन सादर देखन सोई॥६१॥ युवा मेरे पिता के यहाँ बहुत बड़ा उत्सव है। हे प्रभों ! हे कृपानिधन ! यदि है आपकी आज्ञा हो, तो मैं आदर-सहित उसे देखने जाऊँ। ... : राम कहेहु नीक मोरेहुँ मन भावा ॐ यह अनुचित नहिं जेवत पठावा राम देच्छ सकल निज सुता वोलाई हेमरे बयर तुम्हउ बिसराई | रामः .. शिवजी ने कहा--तुमने बात तो. अच्छी कही, मुझे भी पसंद आई पर राम । अनुचित तो यह है कि उन्होंने नेवता नहीं भेजा। दक्ष ने अपनी संब बेटियाँ है राय) बुलाई हैं; परन्तु हमारे साथ बैर होने से उसने तुमको भी भुला दिया । '. ॐ ब्रह्म सभा हम सन दुखु माना छ तैहि ते अजहुँ करहिं अपमाना हो जौं बिनु बोलें जाहुं भवानी के रहै न सीलु सनेहु ने कांनी | एक बार ब्रह्मा की सभा में हमसे अप्रसन्न हो गये थे। उसी से वे अब तक * हमारा अपमान करते हैं । हे सती ! जो बिना बुलाये जाओगी, तो न शील और * स्नेह ही रहेगा और न मर्यादा ही रहेगी। के जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा ॐ जाइयं बिनु बोलेहु न सँदेहा होम तदपि विरोध मान जहँ कोई ॐ तहाँ गये कल्यांनु न होई रामो । यद्यपि इसमें सन्देह नहीं कि मित्र, स्वामी, पिता और गुरु के घर बिंनी के (राम) बुलाये भी जाना चाहिये। तो भी जहाँ कोई विरोध मानता हो, उसके घर जाने सम्म से भलाई नहीं होती। होमी भाँति अनेक संभु समुझावा ॐ भावी बस न ग्यानु उर आवा राम कह प्रभु जाहु जो विनहिं बोलाएँ ॐ नहिं भलि बात हमारे भाएँ | शिवजी ने बहुत तरह से समझाया; पर होनहार-वश सती के हृदय में | बोध न हुआ। फिर शिवजी ने कहा–यदि बिना बुलाये जाओगी, तो हमारी * गुम समझ में अच्छी बात न होगी । ५) F केहि देखी हर जतन बहु रहइ न देच्छकुसारि ।। 4 दिये मुख्य गन सङ्ग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि ।६२॥ ॐ १. सर्यादा । २. समझ में । ३. गण, सेवक ।।