पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

--- - --- -- - - -- |.".---- 'बील-काण्ड | जब शिवजी ने बहुत उपाय करके देखा कि सती नहीं रुकतीं, तवे उन्होंने अपने मुख्य सेवकों को साथ करके उनको विदा किया । [ परिकरांकुर अलंकार ] ॐ पिता भवनं जव गई भवानी देच्छ त्रास काहु न सन्मानी से राम) सादर भलेहिं मिली एक साता ॐ भगिनी मिलीं वहुत मुसुकाती राम जब सती पिता के घर पहुँचीं, तब वृक्ष के डर से किसी ने उनका सत्कार रामू नहीं किया । केबल एक माता भले ही आदर से मिली । बहनें बहुत मुसकुराती हुई मिलीं। दच्छ न कुछ पूछी कुसलता ॐ सतिहि विलोकि जरे सब गाता सती जाई देखउ तव जागा ॐ कतहुँ न दीख संभु कर भागा दक्ष ने तो उनकी कुछ कुशल तक न पूछी; उलटे सत्ती को देखकर उनका । * सीरा शरीर जंल उठा । तब सती ने जाकर यज्ञ देखा तो वहाँ कहीं शिवजी का * * भाग दिखाई न दिया ।। म तब चित चढ़ेउ जो सझर कहेॐ ॐ प्रभु अपमान समुझि उर दहेऊ । पछिल दुख न हृदय अस व्यापा 8 जस यह भयउ महा परितापा । (राम) तब शिवजी ने जो कहा था, वह उनकी समझ में आया। स्वामी का राम) अपमान देखकर सती का हृदय जल उठी। पिछला अर्थात् पति के त्याग का है दुःख उनके हृदय में उतना नहीं ब्यापा, जितना भारी दुःख सती को यह हुआ। जैद्यपि जग दारुन दुख नाना ॐ सब तें कठिन जाति अपमाना। ए संमुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा बहु विधि जननी कीन्ह प्रवोधा । यद्यपि जगत में अनेक प्रकार के कठिन दुःख हैं, तथापि स्वजाति से अपमानित होना सबसे बढ़कर कठिन है। यह समझकर सती को वड़ा क्रोध आया। माता ने उन्हें बहुत तरह से समझाया-बुझाया। [. अर्थान्तरन्यास अलंकार ] ॐ न सिव अपमान न जाई सहि हृदय न होइ प्रबोध ।। - सकल महिं हटि हट ितव बोली बचन सोध६३ एमा | शिवजी का अपमान उनसे सहा नहीं जाती है इससे उनके हृदय को * सन्तोषं भी नहीं है; तब सारी सभा को हठ से डाँट कर क्रोध भरे वचन ए * बोलीं* १. डर । २. कठिन । ३. डाँटकर।