पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/३१

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१८ राष्ट्रीयता और समाजवाद सुधारोकी सिफारिश करनी चाहिये और लोगोको इस वातके कहनेका अवसर नहीं देना चाहिये कि भारतीय सरकार केवल ब्रिटिश सरकारके दवावसे अथवा आन्दोलनके प्रभावसे विवश होकर ही कुछ करनेको तैयार होती है । इसीलिए उन्होने १६०६मे सुधारोपर विचार करनेके लिए अपनी कोसिलकी एक उपसमिति नियुक्त की थी। नया कानून १६०६ मे वना । इसके अनुसार प्रान्तीय व्यवस्थापक सभाग्रोमे ही गैर सरकारी सदस्योका वहुमत रखा गया । केन्द्रीय व्यवस्थापक सभापर सरकार अपना अक्षुण्ण अधिकार रखना चाहती थी। इसलिए केन्द्रीय व्यवस्थापक सभामे सरकारी सदस्योका ही बहुमत रखा गया । सुधारके सम्बन्धमे भारत-सरकारकी अोरसे प्रान्तीय सरकारोके पास जो सरकुलर भेजा गया था उसमे यह वात स्पष्ट कर दी गयी थी कि इस मुधार-योजनामें ब्रिटिश- अधिकार और प्रभुत्वके परित्याग करने या उसे कम करनेका कोई विचार नही है । इन व्यवस्थापक सभाअोके सदस्योकी संख्यामे भी वृद्धि की गयी । सदस्योको बिल और प्रस्ताव उपस्थित करनेका अधिकार मिला । बजटपर वाद-विवाद करनेका उन्हें पूरा मौका दिया गया, लेकिन इन सभायोको कोई वास्तविक अधिकार प्राप्त न थे। सरकार इनके स्वीकृत प्रस्तावोको भी रद्द कर सकती थी, इसलिए इन्हे एक प्रकारकी वाद-विवाद सभाएं ही समझना चाहिये । यद्यपि इन सुधारोमे कुछ सार न था ; तथापि नरम दलके नेताअोने उस समय इन मुधारोकी बड़ी प्रशंसा की थी और उन्हे उदारतापूर्ण वतलाया था। इन सुधारोके द्वारा एक वात अवश्य हुई कि चार-पांच भारतवासियोको भारत-सचिवकी इण्डिया-कौसिल, गवर्नर-जनरल और प्रान्तको कार्यकारिणी समितिकी सदस्यता मिली। यह स्पष्ट है कि इन सुधारोसे सामान्य जनताको कोई लाभ नहीं हुा । कुछ सालके अनुभवके पश्चात् नरम दलके नेताग्रोको भी ये सुधार अपर्याप्त प्रतीत हुए। इस नयी योजनाके बनाते समय सरकारने इस वातपर ध्यान रखा था कि अंग्रेजी शिक्षित हिन्दुरोका प्रभाव घटाया जाय । भारतीय सरकारके जिस सर्कुलरका हमने ऊपर उल्लेख किया है उसमे यह कहा गया था कि सरकार ऐसे वर्गोको विशेषाधिकार देकर राजनीतिके क्षेत्रमें लाना चाहती है जो हर प्रकारके परिवर्तनसे घबराते है और जिनकी यह कोशिश रहती है कि वर्तमान परिस्थिति सदाके लिए अपरिवर्तित रूपसे कायम रहे । इस दृप्टिसे उसने यह आदेश दिया कि सुधारकी कोई योजना वर्तमान समयकी आवश्यकतायोको पूरा नहीं कर सकती जवतक कि उसमें बड़े जमीन्दार, व्यापारी और व्यवसायियोके उचित प्रतिनिधित्वकी व्यवस्था न की जाय । मुसलमान प्राय कांग्रेससे अलग रहे और वे राजभक्त समझे जाते थे । इस समय मुसलमान अपनी जातिमे शिक्षाका प्रचार करनेमे संलग्न थे । १८८६मे 'मोहमडन एजुकेशनल कान्फरेन्स'का प्रारम्भ हुआ जिसका अधिवेशन वर्पमे एक वार हुआ करता था। उनकी कोई राजनीतिक संस्था न थी। लार्ड मिण्टो मुसलमानोंको विशेप प्रतिनिधित्व देना चाहता था । लार्ड मिण्टोके संकेतपर ही १६०६ मे सर आगा खाँके नेतृत्वमे मुसलमानोका एक डेपुटेशन मिण्टोसे मिला था। मौलाना मुहम्मदअलीने कोकोनाडा काग्रेसके अवसरपर सभापतिको हैसियतसे जो भापण किया था उसमे इस रहस्यको खोला था । मार्ले साहबने भी अपने सस्मरणोमें