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सन १९२१ की मनुष्य-गणना

और देशी राज्यों और रियासतोंमें ७,२९,३६,७३६ मनुष्य थे। दस वर्ष पहले, १९११ में, जब मनुष्य-गणना हुई थी तब

गवर्नमेण्ट-शासित भारतकी आबादी थी २४,३९,३३,१७८

और

देशी राज्योंकी थी ७,१२,२३,२१८

कुल भारतकी ३१,५१,५६,३९६

अर्थात् पिछले दस साल में केवल ३९ लाख आदमियों की वृद्धि हुई। इसका औसत पड़ा फ़ी सदी १.२ अर्थात् सैंकड़े पीछे सवा आदमीसे भी कम वृद्धि हुई। पर १९११ ईसवीमें जब मनुष्य-गणना हुई थी तब १९०१ और १९११ के बीच २ करोड़से भी अधिक आबादी बढ़ी थी। उस वृद्धिका औसत पड़ा था फ़ीसदी ६.५। कहाँ सैकड़े पोछे ६ १/२, कहाँ एक या सवा! सो पिछले क्रमके अनुसार आबादीका बढ़ना तो दूर रहा, फ़ीसदी ५ से भी अधिक वह कम हो गयी—कोई डेढ़ करोड़से भी अधिक आदमी हिसाबसे ज़ियादह मर मिटे। वृद्धिका जो औसत १९११ की मनुष्य-गणनामें पड़ा था वही यदि इस बार भी पड़ता तो कई करोड़ आबादी और बढ़ जाती। पर यहाँ तो घरके धान भी पयालमें चले गये। पिछली वृद्धिसे इस दफ़े, दस सालमें, अधिक वृद्धि होनी चाहिये थी; सो न होकर उस पिछली वृद्धिका भी औसत घट गया! इसे इस देशका दुर्भाग्य कहें या उस गवर्नमेण्टका दुर्भाग्य जो अपनेको संसारमें सभ्यशिरोमणि समझती है और मौक़े बेमोक़े सदा ही कहा करती है कि उसे भारतके अशिक्षित, अधभुखे या मरभुखे मनुष्योंके सुख-दुःखका ख़याल और सबसे अधिक है।