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लीग आफ़ नेशन्सका खर्च और भारत

त्वलिप्सा है। मेरा ही प्रभुत्व सबसे बढ़ा-चढ़ा रहे; मैं ही अधिकाधिक निर्बलोंको पदानत करता चला जाऊँ; तू दूर रह; तू मेरे काममें विघ्न न डाल—बात यह। योरपमें कुछ समय पूर्व जो महायुद्ध हुआ था उसका कारण भी यही लिप्सा थी। जर्मनी अपना बल बढ़ा रहा था। औरोंको यह बात पसन्द न थी। बस, सब प्रतिस्पर्धा अपना-अपना गुट बनाकर लड़ पड़े। जिनका पक्ष प्रबल था उन्होंने छल-बलसे किसी तरह जर्मनीको हरा दिया। पर उनकी इस जीतहीने उनके कान खड़े कर दिये। उन्होंने कहा, इस एक युद्धसे तो धन-जनकी इतनी हानि हुई है; और भी कोई ऐसा ही युद्ध छिड़ गया तो हमलोगों का सर्वनाश ही हो जायगा—हमारे देश एकदम ही उद्ध्वस्त हो जायँगे। यह सोचकर उन्होंने लीग आफ़ नेशन्स नामकी एक संस्था बना डाली। उसे एक प्रकारकी शान्ति-स्थापक सभा या पञ्चायत कहना चाहिये। उसका सदर मुक़ाम स्विज़रलैंडके एक शहरमें क़रार दिया गया। वहां बड़े-बड़े दफ्तर खुल गये। सैकड़ों कर्म्मचारी रक्खे गये। बड़ी सभाके मातहत अनेक छोटी-छोटी कमिटियाँ भी बना डाली गयीं। इस सभाके अधिवेशन समय-समयपर हुआ करते हैं। अन्तर्जातीय राजकीय विषयोंपर विचार होना है, नियम निर्धारित होते हैं और पारस्परिक झगड़े आपसहीमें निपटानेकी चेष्टा की जाती है।

अबतक जर्मनी इस सभाका सभासद् न था। अब वह भी हो गया है। जर्मनी, इँग्लेंड, फ्रांस, इटली और जापान ये पाँच बलाढ्य राज्य हैं। इनके प्रतिनिधियोंको इस सभा स्थायी सभासदत्व प्राप्त