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लेखाञ्जलि


तिनपर भी यहां, इस देशमें, कुछ लोग नक्कारा बजाते फिरते हैं कि इस सभासे बड़े-बड़े लाभ हैं। इसने भारतका प्रतिनिधि लेकर भारतका गौरव बढ़ा दिया है। सभामें भारतीय प्रतिनिधिको अन्य स्वतन्त्र देशोंके प्रतिनिधियोंके साथ बैठनेका अधिकार प्राप्त हो गया है—वग़ैरह-वग़ैरह। परन्तु पास बैठनेहीसे भारत उन अन्य देशोंकी बराबरीका नहीं हो जाता। उनकी और भारतकी स्थितिमें आकाश-पातालका अन्तर है। अफीमकी पैदावार और रफ्तनी तथा कल-कारखानोंमें काम करनेवाले मजदूरोंके काम आदिके सम्बन्धमें नियम बना देनेहीसे भारतके हित-चिन्तनकी इतिश्री नहीं हो जाती। जिन बड़ी-बड़ी त्रुटियोंके कारण भारतवासियोंकी दुर्गति हो रही है उनकी तरफ तो इस सभा अर्थात् लीगका ध्यान ही नहीं। और यदि वह ध्यान भी देना चाहे तो नहीं दे सकती। कुछ बानक ही ऐसा बना दिया गया है। ऊपर लिखी गयी बातको न भूलिये कि यह लीग योरपके कुछ ही बलाढ्य देशोंके हाथका खिलौना है। उन्होंने कुछ बन्धन ही ऐसा बाँध दिया है कि काम-काजके वक्त कसरत राय उन्हींकी रहे।

अच्छा, जिस लीगसे भारतका इतना कम हित होता है और इतने कम हित होनेकी सम्भावना आगे भी है उसके लिए इस निर्धन देशको ख़र्च कितना करना पड़ता है। इस लीगके सालाना ख़र्चका तख़मीना हर साल तैयार किया जाता है। दिसम्बर १९२६ के "माडर्न-रिव्यू" में १९१६ के १२ महीनोंके ख़र्चका जो टोटल दिया गया है वह ९,१७,२२५ पौंड है। याद रखिये, इस मासिकपत्रके