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देशी ओषधियोंकी परीक्षा और निर्माण

ढँगसे, करते हैं। जाँच करनेपर जो गुण जिस ओषधिमें आप पाते हैं उसमें रोग-विशेषको नाश करनेकी कितनी शक्ति है, इसकी जाँच भी आप स्कूलके अस्पतालके रोगियोंपर करते हैं। पुनर्नवा नामकी ओषधिकी जाँच आपने बड़े मनोनिवेशसे की है और उसमें क्या-क्या गुण हैं, अर्थात् किन-किन रोगोंमें उसे देनेसे लाभ होता है, इसका भी प्रामाणिक विवरण प्रकाशित किया है। उनकी इच्छा है कि एक स्कूल अलग खोला जाय। उसमें छात्रोंको ओषधि-निर्म्माण-विद्याकी भी शिक्षा दी जाय और प्रत्येक स्वदेशी ओषधिकी जाँच करके उसके रोग-नाशक गुणोंका वर्णन लिखा जाय। फिर ये ओषधियां काफी मात्रामें तैयार करके सरकारी शफाख़ानोंको दी जायँ। वहाँ उनका उपयोग उन ओषधियोंके बदलेमें किया जाय, जो दूसरे देर्शोसे यहाँ आती हैं। देखिये, कैसा स्तुत्य विचार है।

आज-कल यह हाल है कि कुचिला, सींगिया, मदार, अण्डी, जामुनकी मींगी आदि कौड़ी मोल बिकती और विदेशको जाती हैं। वहाँ उनसे नाना प्रकारकी ओषधियां, तैल इत्यादि तैयार होकर जब वे चीज़ इस देशको लौट आती हैं तब सैकड़ों गुने अधिक मूल्यपर बिकती हैं। यदि ये सब ओषधियाँ बटी, चर्चा, स्वरस, कल्क, तेल आदिके रूपमें यहीं तैयार होने लगे और वैज्ञानिक ढँगसे इनके गुणोंका पता लगाकर उनके वर्णन प्रकाशित हो जायँ तो डाक्टरोंको विश्वास हो जाय कि ये चीज़ कामकी हैं। अतएव इनका प्रचार बढ़े और देशको करोड़ों रुपयेका लाभ हो। परन्तु यह काम इतना बड़ा है कि वर्तमान स्थितिमें अकेले डाक्टर चोपड़ा नहीं कर सकते।