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लेखाञ्जलि


उन्हें कितनेही सहायक डाक्टर और कर्मचारी चाहिये। इसके लिए धन भी बहुत-सा चाहिये। स्वदेशी चिकित्साके पक्षपातियोंमें जो लोग धनी हैं और देश-भक्त भी हैं उन्हें चाहिये कि इस देशोप- योगी काममें डाक्टर-साहयकी सहायता करें।

एशियाटिक सोसायटी आव् बेङ्गालकी एक शाखा है। उसमें रोग-चिकित्सा-विषयक बातोंपर विचार किया जाता है। कुछ समय हुआ, सोसायटीकी इस शाखाके सभ्योंकी एक बैठक हुई थी। उसमें स्वदेशी-ओषधि-निम्मणिपर एक लेख पढ़ा गया था। इस लेखके लेखक हैं वे ही पूर्वनिर्द्दष्ट मेजर चोपड़ा, एल० एम० एस० और डार बी० एन० घोष। पढ़े जानेके बाद यह लेख अँगरेज़ीकी एक सामयिक पुस्तक (Indian Medical Record) में प्रकाशित हुआ है। इस लेखमें लेखक-द्वयने अपने पूर्वोक्त विचारोंको विस्तार पूर्वक प्रकट किया है। लेखके मुख्य-मुख्य अंशोंका सार नीचे दिया जाता है―

देशी ओषधियोंमें बहुत-सी ओषधियाँँ ऐसी हैं जिनका प्रयोग वैद्य और हकीम सैकड़ों वर्षो से कर रहे हैं और वे अपना गुण भी खूब दिखाती हैं। पर कुछ ओषधियाँँ ऐसी भी हैं जिनके गुणोंका वर्णन पुस्तकोंहीमें पाया जाता है। उनके गुणोंकी परीक्षा उचित रीतिसे, आजतक,किसीने नहीं की। इस दशामें समझदार चिकित्सक उनके उन निर्दिष्ट गुणोंपर विश्वास नहीं करते। एक उदाहरण लीजिये। चिकित्सा-ग्रन्थोंमें लिखा है कि अशोकसे प्रदररोग, पुनर्नवा- से जलोदर ओर अभ्रक भस्मसे बहुमूत्र-रोग जाता रहता है। परन्तु