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देहाती पञ्चायतें


कोई औरत अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ पञ्चायतके सामने हाज़िर होनेके लिए मजबूर नहीं की जा सकती।

फरीक़ैनके लिए यह लाज़मी नहीं कि वे असालतन ही पञ्चायतके सामने, पैरवीके लिए, हाज़िर हों। अगर वे चाहें तो इस कामके लिए अपने नौकर, मुनीम, गुमाश्ता, किसी कुटुम्बी या दोस्तको भेज सकते हैं। वकील, मुख़्तार या क़ानून-पेशा कोई और आदमी पञ्चायतके सामने किसी नालिश या मुक़द्दमेकी पैरवी नहीं कर सकता।

नालिशों और मुकद्दमोंका सुना जाना।

पञ्चायत नालिशों और मुकद्दमोंको उसी तरह सुन सकती है जिस तरह कि सरकारी अदालतें सुनती हैं। मुलज़िम या मुद्दआइलेहसे वह जवाब तलब करती है और सबूत और सफ़ाईके गवाहों की शहादत लेती है। जो बयान उसके सामने होते हैं उनका सारांश-मात्र सरपञ्च अपने रजिस्टरमें लिख लेता है। ज़रूरत होनेपर मामले मुल्तवी भी कर दिये जाते हैं; पर क़ानून कहता है कि जहाँतक हो सके पंचायतोंको फ़ैसले जल्द सुना देने चाहिये; व्यर्थ तूल न देना चाहिये। मुलज़िम और मुद्दआइलेहकी गैरहाज़िरीमें भी पंचायत अपना फ़ैसिला दे सकती है; मगर फ़ौजदारीके मामलोंमें यह लाज़मी है कि कम-से-कम एक दफ़े मुलज़िम हाज़िर होकर अपने ऊपर लगाया गया इलज़ाम सुने और यदि कुछ जवाब रखता हो तो दे। समनकी बाक़ायदा तामील हो जानेपर भी यदि वह पंचायतके सामने हाज़िर न आवे तो रिपोर्ट की जानेपर ज़िलेका हाकिम उसे जबरन हाज़िर करानेकी कार्‌रवाई कर सकता है।