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किसानोंका सङ्घटन

इन्स्पेक्टरों, दफ़्तरके बाबुओं, कौंसिलके मेम्बरों, महाजनों और व्यवसायियोंहीसे आबाद नहीं। आबाद है वह उन लोगोंसे जिनकी संख्या फ़ी सदी ७५ है, जो देहातमें रहते हैं और जो विशेष करके खेतीसे अपना गुजर-बसर करते हैं। अब यदि जन-समुदायकी यह इतनी बड़ी संख्या दुःख, दारिद्र और मूर्खताके पङ्कमें पड़ी सड़ा करे और समर्थ देशवासी उनके उद्धारकी चेष्टा न करें तो कितने परितापकी बात है। इन्हीं किसानों या काश्तकारोंहीसे तो देश आबाद है। इन्हींकी दशा यदि हीन है तो समझना चाहिये कि सारे ही देशको कम-से-कम ३/४ देशकी तो ज़रूर ही हीन है। परन्तु, हाय, यह इतनी मोटी बात हमारे ध्यानमें नहीं आती और हममेंसे जो समर्थ हैं वे भी इन लोगोंकी तकलीफें दूर करने का यथेष्ट प्रयत्न नहीं करते।

खेतिहरोंका व्यवसाय या पेशा खेती करना है और खेती खेतोंमें होती है। इन प्रान्तोंमें जितनी ज़मीन खेती करने लायक़ है, कुछको छोड़कर बाक़ी सभीके मालिक ज़मींदार, तअल्लुकेदार, नम्बरदार और राजा-रईस बने बैठे हैं। वे क़ाश्तकारोंसे ख़ूब कसकर लगान लेते हैं, उसे समय-समयपर बढ़ाते भी हैं और कारण उपस्थित हो जानेपर उन्हें उनके खेतोंसे बेदख़ल भी कर देते हैं। इस सम्बन्धमें क़ानून जो बने हैं वे काश्तकारोंके सुभीतेके कम और ज़मींदारोंके सुभीतेके अधिक हैं। अतएव जिस ज़मीनके ऊपर काश्तकारों का जीना-मरना अवलम्बित है उसके लगान आदिके नियन्त्रणके नियम सुभीतेके न होनेके कारण कभी-कभी काश्तकारोंकी बड़ी ही दुर्गति होती है।

सभी क़ानून लेजिस्लेटिव कौंसिलके मेम्बरोंकी सलाहसे बनते