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लेखाञ्जलि

में विचारार्थ पेश होनेपर वे लोग क्या करेंगे—कैसी राय देंगे—इसमें किसीको कुछ भी सन्देह नहीं हो सकता। इस दशामें किसानोंके सङ्गठनकी कितनी आवश्यकता है, इसे और अधिक स्पष्ट करके बताने की जरूरत नहीं। समयकी कमीके कारण यदि, आगरा-प्रांतके क़ानून-काश्तकारीमें, किसान न्यायसङ्गत फेरफार न करा सकेंगे तो सङ्गटन हो जानेपर आगे तो उनकी चेष्टाओंके विशेष फलवती होनेकी सम्भावना रहेगी। अतएव जो समर्थ और शिक्षित प्रान्तवासी इन अपढ़ और असमर्थ किसानोंको एकसूत्र में बाँध देंगे उन्होंने माना अपने प्रांतके ७५ फ़ी सदी आदमियोंके उद्धारका द्वार खोल दिया।

अच्छा तो यह सङ्गठन हो कैसे? इलाहाबादमें श्रीयुत सङ्गमलाल अगरवाला नामके एक महाशय हैं। आप प्रान्तीय कौंसिलके मेम्बर हैं। उन्होंने, जान पड़ता है, सङ्गठनके महत्त्वको अच्छी तरह समझ लिया है और इस विषयमें कुछ उद्योगका आरम्भ भी कर दिया है। उन्होंने किसी संस्थाकी भी संस्थापना शायद कर दी है। उसके कार्यकर्ता घूम-फिरकर व्याख्यानों द्वारा किसानोंको उचित सलाह भी दिया करते हैं। आपको संस्थाकी ओरसे कभी-कभी सङ्गठन इत्यादिके विषयमें लेख भी हिन्दी समाचार-पत्रोंमें—और यदा-कदा अँगरेजीके पत्र "लीडर" में भी हमारे देखनेमें आये हैं। परन्तु इस चर्चा या उद्योगसे विशेष फलप्राप्तिकी आशा नहीं, क्योंकि वह बहुत निर्बल है। लेख लिखकर अख़बारों में प्रकाशित करनेसे वे किसानोंतक नहीं पहुँच सकते और पहुँचते भी हैं तो उनकी एक बहुत ही परिमित संख्यातक। फिर किसानोंका अधिकांश अपढ़ है। लेख