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किसानोंका सङ्घटन

और समाचार-पत्र उनतक पहुँचे भी तो उनका पहुँचना सर्वथा व्यर्थ है। बड़े-बड़े शहरों या क़सबोंमें किसान-सभाएं कराने और कृषकोपयोगी व्याख्यान दिलानेसे भी किसानोंको बहुत-ही-कम लाभ पहुँच सकता है।

किसानोंको सजग करने, उन्हें उनका कर्तव्य बताने और उनका सङ्गठन करनेके लिए बहुतसे कार्यकर्ताओंकी आवश्यकता है। दस-पाँच व्याख्याताओं, उपदेशकों या एजंटोंसे काम नहीं चल सकता। किसान कुछ इलाहाबाद या बनारस या उनके पास-पड़ोसके ज़िलोंहीमें तो रहते नहीं। वे तो आगरा और अवधके सभी जिलोंकी देहातमें रहते हैं। उन सभीका सङ्गठन होना चाहिये और उन सभीको सचेत करना चाहिये। अतएव सङ्गठनका प्रधान दफ्तर इलाहाबादमें रहे। उसके अधीन हरजिलेके सदर मुक़ाममें भी एक-एक दफ्तर रहे। इसके सिवा हर ज़िलेकी हर तहसीलमें एक-एक छोटा दफ्तर खोला जाय। फिर हर तहसील के समुचित विभाग करके प्रत्येक विभाग एक-एक उपदेशक या एजण्टको बाँट दिया जाय। वह देहातमें बराबर दोरा करता रहे। बाज़ारों, मेलों और बड़े-बड़े गाँवोंमें वह व्याख्यान देकर सङ्गठनके लाभ बतावे और किसानोंको क्या करना चाहिये, इस बातकी सलाह दे। जब वह देखे कि लोग सङ्गठनके लाभ समझ गये हैं तब छोटे-छोटे कई गाँवों को मिलाकर, किसी ख़ास गाँवमें, जहाँ कुछ पढ़े-लिखे और समझदार किसान रहते हों, एक-एक किसान-सभा खोल दे और सभाको उसके कर्तव्य बतला दे। ये देहाती सभाएं तहसीलकी सभासे सम्बद्ध रहें और तहसीलोंकी सभाएँ