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लेखाञ्जलि

हाथमें विराजमान रहते हैं। जराजीर्णोंके तो एक-मात्र अवलम्ब हमीं हैं। हम इतने समदर्शी हैं कि हममें भेद-ज्ञान ज़रा भी नहीं—धार्म्मिक-अधार्म्मिक, साधु-असाधु, काले-गोरे सभीका पाणिस्पर्श हम करते हैं। यों तो हम सभी जगह रहते हैं, परन्तु अदालतों और स्कूलोंमें तो हमारी ही तूती बोलती है। वहाँ हमारा अनवरत आदर होता है।

संसारमें अवतार लेनेका हमारा उद्देश दुष्ट मनुष्यों और दुवृत्त बालकोंका शासन करना है। यदि हम अवतार न लेते तो ये लोग उच्छृङ्खल होकर मही-मण्डलमें सर्वत्र अराजकता उत्पन्न कर देते। दुष्ट हमें बुरा बताते हैं; हमारी निन्दा करते हैं। हमपर झूठे-झठे आरोप करते हैं। परन्तु हम उनकी कटूक्तियों और अभिशापोंकी ज़रा भी परवा नहीं करते। बात यह है कि उनकी उन्नतिके पदप्रदर्शक हमीं हैं। यदि हमीं उनसे रूठ जायँ तो वे लोग दिन-दहाड़े मार्गभ्रष्ट हुए बिना न रहें।

विलायतके प्रसिद्ध पण्डित जानसन साहबको आप शायद जानते होंगे। ये वही महाशय हैं जिन्होंने एक बहुत बड़ा कोश, अँगरेज़ीमें, लिखा है और विलायती कवियोंके जीवन-चरित, बड़ी-बड़ी तीन ज़िल्दोंमें भरकर, चरित-रूपिणी त्रिपथगा प्रवाहित की है। एक दफ़े यही जानसन साहब कुछ भद्र महिलाओंका मधुर और मनोहर व्यवहार देखकर बड़े प्रसन्न हुए। इस सुन्दर व्यवहारकी उत्पत्तिका कारण खोजनेपर उन्हें मालूम हुआ कि इन महिलाओंने अपनी-अपनी माताओंके कठिन शासनकी कृपाहीसे ऐसा भद्रोचित व्यवहार सीखा है। इसपर उनके मुँहसे सहसा निकल पड़ा—