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दण्ड-देवका आत्म-निवेदन

"Rod! I will honor thee
For this thy duty."

अर्थात् हे दण्ड, तेरे इस कर्तव्य-पालनका मैं अत्यधिक आदर करता हूँ। जानसन साहबकी इस उक्तिका मूल्य आप कम न समझिये। सचमुच ही हम बहुत बड़े सम्मानके पात्र हैं; क्योंकि हमीं तुम लोगोंके—मानवजातिके—भाग्य-विधाता और नियन्ता हैं।

संसारकी सृष्टि करते समय परमेश्वरको मानव-हृदयमें एक उपदेष्टाके निवासकी योजना करनी पड़ी थी। उसका नाम है विवेक। इस विवेकहीके अनुरोधसे मानव-जाति पापसे धर-पकड़ करती हुई आज इस उन्नत अवस्थाको प्राप्त हुई है। इसी विवेककी प्रेरणासे मनुष्य, अपनी आदिम अवस्थामें, हमारी सहायतासे पापियों और अपराधियोंका शासन करते थे। शासनका प्रथम आविष्कृत अस्त्र, दण्ड, हमीं थे। परन्तु कालक्रमसे हम अब नाना प्रकारके उपयोगी आकारों में परिणत हो गये हैं। हमारी प्रयोग-प्रणालीमें भी अब बहुत कुछ उन्नति, सुधार और रूपान्तर हो गया है।

पचास-साठ वर्ष के भीतर इस संसारमें बड़ा परिवर्तन—बहुत उथल-पथल—हो गया है। उसके बहुत पहले भी, इस विशाल जगत्‌में, हमारा राजत्व था। उस समय भी रूसमें, आज-कलहीकी तरह, मार-काट जारी थी। पोलैंडमें यद्यपि इस समय हमारी कम चाह है, पर उस समय वहाँकी स्त्रियोंपर रूसी-सिपाही मनमाना अत्याचार करते थे और बार-बार हमारी सहायता लेते थे। चीनमें तब भी वंस-दण्डका अटल राज्य था। टर्कीमें तब भी दण्डे चलते थे।