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लेखाञ्जलि

बहुत दिनोंके बाद वार्ड साहबको इनके विषयमें जो बातें मालूम हुई वे बहुत ही कौतूहल-जनक हैं।

वार्ड साहब कहते हैं कि शरहतु के अन्तिम भाग में ये मक्खियां उनके बागीचेमें आती हैं। इनका आकार साधारण मक्खीसे कुछ छोटा होता है। रङ्ग इनका हरा होता है। बागीचेमें आते ही ये वहां के वृक्षोंके पत्तोंपर अण्डे देने लगती हैं। अण्डोंके साथ ही एक प्रकारका रस निकलता है। इस रस के प्रभावसे अण्डे वृक्षों के पत्तोंपर चिपक जाते हैं। अण्डों का ऊपरी भाग मज़बूत होता है, इसी कारण अधिक-से-अधिक ठण्ढ पड़नेपर भी इन्हें कुछ भी हानि नहीं पहुँचती। वसन्त का प्रारम्भ होते ही अण्डे फूटने लगते हैं। अण्डों से स्त्री-जातीय बच्चे निकलते हैं। इनके पङ्ख नहीं होते। तीन-चार दिनके भीतर ही ये बढ़कर बड़े हो जाते हैं। इन अंडोंसे पुरुष-जातीय मक्खियों नहीं पैदा होतीं। पुरुष-जातीय मक्खियों के न होनेपर भी नई पैदा हुई मक्खियाँ बच्चे जनती हैं। इनके भी बच्चे स्त्री-जाति हीके होते हैं। पर ये अंडों से नहीं, माताके गर्भसे निकलते हैं। इनके भी पङ्ख नहीं होते। वार्ड साहब लिखते हैं कि ये मक्खियां केवल शरहतुके अन्तिम ही भागमें अंडे देती है, और समय में बच्चे पैदा करती रहती हैं। इसके सिवा सबसे बड़ी आश्चर्यकी बात यह है कि पुरुष -जाति की मक्खियों की सहायताके बिना ही इनके बच्चे पैदा होते हैं।

नवजात पक्षविहीन मक्खियाँ ज्योंही चार-पांच दिनोंमें बढ़कर बड़ी हो जाती हैं त्योंही उनके पक्षविहीन स्त्री-जातीय बच्चे पैदा होते