पृष्ठ:लेखाञ्जलि.djvu/५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४४
लेखाञ्जलि

लोग (केवल इसी देशके नहीं किन्तु योरपके भी) समझते थे कि चक्र और दण्डके योगसे मनमाने काम लिये जा सकते हैं। प्रकृतिने अपने रहस्योंको गुप्त रक्खा है। हम नित्य देखते हैं कि नदी बहती है, हवा चलती है, वृक्षोंमें फल लगते हैं, आकाशमें मेघ आते हैं। किसी काममें विराम नहीं। आकर्षण, विकर्षण सङ्कोचन, प्रसारण, संसक्ति और आसक्ति तथा समस्त आणविक क्रियाएं गुप्तबलका बाह्य विकाश हैं। कुछ भी हो, आधुनिक विज्ञान स्पष्ट कह रहा है कि चाहे जो शक्ति काम करे, उसका परिणाम विराम ही है; किसी समय वह ज़रूर ही बन्द हो जायगी। हमारी देह, जो अपना जीर्णोद्धार आप ही करती है, कैसे कौशलसे बनाई गई है, परन्तु उसके कामोंका भी विराम है। फिर मानवरचित यन्त्रोंका विराम क्यों न होगा? आधुनिक विज्ञानके उन्नायक योरप और अमेरिकामें भी लोग सदावह-यन्त्रके आविष्कार-प्रलोभनमें अबतक फंसते जाते हैं।

वर्तमान विज्ञानसे प्राचीन विज्ञानकी तुलना करना ठीक नहीं। बड़े आश्चर्यकी बात है कि किसी-किसी पाश्चात्य पडिण्तने सूर्यसिद्धांतमें स्वयंवहका नाम देखकर ही प्राचीन आर्योंकी ज्ञान-गरिमाकी दिल्लगी उड़ाई है। परन्तु ऊपर जो कुछ लिखा गया है उससे आप समझ सकते हैं कि सब स्वयंवह-यन्त्र एक ही तत्वपर नहीं निर्मित हुए। प्राचीन आर्योंकी प्रशंसा इस बातकी करनी चाहिये कि उन्होंने जलचक्रका निर्माण करके उसके द्वारा गति सम्पादन की। विलायती क्लाक घड़ीको जिस तरह स्वयंवह नहीं कह सकते उसी तरह भास्करके स्वयंवह-यन्त्रों को भी स्वयंवह नहीं मान सकते। गुरु-द्रव्यकी