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लेखाञ्जलि

की आसक्ति जानी जा सकती है। पर यह समुदाय या समष्टि केवल परमाणुओंकी आसक्तिका योग-फल नहीं है। परमाणुओंकी स्थितिके भेदसे अणुओंकी आसक्तिके परिमाणमें न्यूनाधिकता होती है। इस कारण समान संख्यावाले परमाणुओंके द्वारा संघटित अणुओंकी भी आसक्ति एक-सी नहीं होती। जिस अणुकी आसक्ति जितनी ही अधिक होती है वह थोड़ी आसक्तिवाले अपने निकटवर्ती अणुको उतना ही अधिक अपनी तरफ खींच लेता है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न स्थानोंमें बहुतसे अणुओंका एकत्र समावेश होकर भिन्न भिन्न पदार्थोंकी उत्पत्ति हुई है। निर्मल आकाशमें, देखते ही देखते, भाफके परमाणु घने होकर जैसे मेघोंकी सृष्टि करते हैं, जड़-जगत्‌की आदिम उत्पत्तिका ढंग या क्रम भी वैसा ही है।

परन्तु पदार्थोंको उत्पन्न करने या बनानेमें जड़ परमाणु अपनी स्वतन्त्रताको नहीं खो देते; उनकी कुण्डलाकार गति हमेशा जैसीकी तैसी ही बनी रहती है। यही कारण है कि सब पदार्थोंमें, जन्महीसे, स्वभावतः, एक प्रकारकी अखण्डनीय गतिकी आकांक्षा पाई जाती है।

अणुओंके परस्पर संलग्न होनेपर जगह-जगहपर उनका आकार बढ़कर क्रमशः बड़े से बहुत बड़ा होने लगा। इस प्रकार सारा जड़ जगत् अविच्छिन्न खण्ड-खण्ड नीहारिकाके रूपमें इधर-उधर फिरने लगा। इन नीहारिका-खण्डोंकी गतिका अन्त न था। दिन-पर-दिन अधिकाधिक अणुओंके समावेशसे उनकी गतिकी आकांक्षा और आसक्ति भी बहुत अधिक बढ़ने लगी। इसका फल यह हुआ कि