पृष्ठ:लेखाञ्जलि.djvu/६

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रोगी उसे नहीं खाना चाहता। इसकी तोड़ वैद्यों और डाकरोंने यह निकाली है कि कुनैन को वे शकरके जलाव में लपेटकर दिया करते हैं। इससे गेगो को उसकी कटुता का अनुभव नहीं होता। वह उसे प्रसन्नतापूर्वक खा लेता है और उसका बुखार जाता रहता है। मातृभाषा से विराग होना भी एक प्रकारका रोग है और बहुत भयङ्कर रोग है। उस विराग के दूरीकरण के लिए भी उपाय करने पड़ते हैं। वे उपाय ऐसे होते हैं जिनका प्रयोग कड़वी कुनैन के सदृश खले भी नहीं और कार्य-सिद्धि भी हो जाय। उसी को सिद्धि से मातृभाषा का प्रेम मनुष्योंमें जागृत हो उठता है और वे अपने भूले हुए कर्तव्य के पालनकी ओर आकृष्ट हो जाते हैं।

अपनी भाषा सीखने और उसके द्वारा शिक्षाप्राप्ति और ज्ञान सम्पादन करने के जितने साधन हैं,पुस्तकों और समाचार-पत्रों को पढ़ना उनमें प्रमुख है। परन्तु जबतक मनुष्यों को उन्हें लेने और पढ़नेका चसका नहीं लगता तबतक वे उपदेश सुनकर ही उन्हें मोल लेने और पढ़ने नहीं लगते। अतएव उन्हें वैसा करने के लिए, रिझाना, फुसलाना और उनकी खुशामद करना पड़ता है। उनके लिए ऐसे लेख और ऐसी पुस्तकें लिखनी पड़ती हैं जिनके नाममात्र सुनने से वे उन्हें चावसे पढ़नेकी इच्छा करें। प्रयाग के इंडियन प्रेससे प्रकाशित सरस्वती नामक पत्रिका में, इस संग्रह-पुस्तक के लेखक को, दस-पन्द्रह वर्ष तक, ऐसे ही लेख लिखने पड़े थे। पाठकों को इसकी सचाईका ज्ञान इस पुस्तक के आरम्भ की लेख-सूचीसे अच्छी तरह हो जायगा।

इस संग्रह में कई प्रकारके लेख हैं। वे सब समय-समयपर,आवश्यकनानुसार, लिखे गये हैं। हर लेखके नीचे उसके लिखे जानेका समय दिया हुआ है। लेखक का उद्देश्य सदा से यही रहा है कि उसके लेखोंसे