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सौर जगत्‌की उत्पत्ति

अलग हो जाता है। ऐसी अवस्थामें वह छँटा हुआ अंश, मूल नीहारिकाके केन्द्रसे दूर जाकर, आप-ही-आप जड़ और घनीभूत होनेकी चेष्टा करता है। इस घने होनेकी अवस्थामें फिर वह गोलाकार रूप धारण करता है। वह अपने लिए एक अन्य स्वतन्त्र केन्द्रकी सृष्टि करता है और स्वयं ही एक स्वतन्त्र पदार्थ-खण्ड बन जाता है।

मूल-नीहारिका-खण्डसे, ऊपर लिखे हुए ढंगसे, एक खण्ड अलग होकर एक स्वतन्त्र गोलककी उत्पत्ति होना जड़ पदार्थोंके स्वाभाविक धर्मकी प्रक्रियामात्र है। परन्तु इस विच्युतिके कारण मूल-गोलक और खण्ड-गोलकका पारस्परिक सम्बन्ध विच्छिन्न नहीं होता। एक दूसरेकी तरफ़ उनकी आसक्ति, परस्परके केन्द्रकी दूरीके अनुसार कम होनेपर भी, एकदम नष्ट नहीं होती। इस कारण खण्ड-गोलक अपने मूलगोलकको घेरकर घूमा करता है। ऐसी स्थितिमें मूल-गोलकको सूर्य और खण्ड-गोलकको ग्रह कहते हैं। सूर्यको घेरकर घूमते-घूमते ग्रह जितना ही अधिक घना हो जाता है, उसके केन्द्रके चारों ओर चक्कर लगानेवाली उसकी गति उतनी ही प्रबल हो उठती है। इस गतिके क्रमशः बढ़नेके कारण वह ग्रह, लचीले गोलेकी तरह, बीचमें फूलने लगता है। इसी तरह ग्रहसे, कुछ दिनोंमें, छोटे-छोटे अन्य ग्रहों अर्थात् उपग्रहोंकी सृष्टि होती है।

ऊपर लिखे अनुसार, क्रमशः, बहुतसे ग्रहों और उपग्रहोंकी उत्पत्ति होनेपर यथासमय एक-एक सूर्यके चारों तरफ एक-एक बड़े परिवारकी सृष्टि हो जाती है। उस ग्रह-परिवारको सौर जगत् कहते हैं। इस प्रकार अनन्त समयमें सूर्य, ग्रह और उपग्रह क्रमशः घने हुए हैं, और