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लेखाञ्जलि

ग्रन्थोंमें लिखा है कि महाराज अशोक-वर्द्धन मौर्य्य, सिंहासनासीन होनेके चौथे वर्ष, बौद्ध-धर्ममें दीक्षित हुए थे। उसी साल उनका राजतिलक हुआ था। अपने शासनके अठारहवें वर्ष अशोकने तीसरे बौद्ध-संघका अधिवेशन किया था। उसके सभापति महात्मा तिष्य हुए थे। बुद्धदेवकी निर्व्वाण-प्राप्तिका वह २३५ वाँ वर्ष था।

राज्यप्राप्तिके तेरहवें वर्षके एक शिलालेख या अभिलेखमें अशोकने लिखा है कि "अपने तिलक नवें वर्ष मैंने कलिङ्गदेशके निवासियोंसे युद्ध किया। युद्धके कारण प्रजाकी अनन्त क्षति हुई। उसे देखकर मुझपर बड़ा असर पड़ा। इस कारण मैंने युद्धको सदाके लिए त्याग दिया है। अब मैं सेना-सञ्चालन करके विजय-प्राप्ति करनेका कभी इरादा न करूंगा। धर्मकी यह जीत मेरे जीवनकी सबसे बड़ी जीत है। यह जीत केवल मेरे ही राज्यमें नहीं, किन्तु, छः सौ योजन तक आसपासके उन देशोंमें भी हुई है जहाँ अंटियोक, टरमई, अंटीकीन, मग और अलकज़ंडर नामक राजे और दक्षिणके चोल, पाण्ड्य और सिंहलक राजे गज्य करते हैं"।

ऊपर जिन यवन-नरेशोंके नाम आये हैं वे कल्पित नाम नहीं। इन नामोंके नरेश उस समय भिन्न-भिन्न देशोंमें राज्य करते थे। उनमेंसे अंटियोक नाम यूरपके इतिहास-लेखकोंने अंटियोकस (Autiochus) लिखा है। वह सीरियाके सिंहासनपर २६१ ई॰ पू॰ में बैठा था, और २४७ ई॰ पू॰ में मरा था। टरमयी या टालमी (Ptolemy) २८५ से लेकर २४७ ई॰ पू॰ तक मिस्रका राजा था। अंटीकीन या अंटीगोनस (Antigouus) २७८ से २४२ ई॰ पू॰