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वरदान
१६
 

प्रताप बुद्धिमान लड़का था। माता की टशा प्रतिदिन बिगड़ती हुई देखकर ताड़ गया कि यह बीमार है। एक दिन स्कूल से लौटा, तो सीधा अपने घर गया। वेटे की देखते ही सुवामा ने उठ बैठने का प्रयत्न किया,पर निर्बलता के कारण मूर्छा आ गयी और हाथ-पांव अकड़ गये। प्रताप ने उसे संभाला और उसकी और भर्त्सना की दृष्टि से देखकर कहा-अम्मा,तुम अाजकल बीमार हो गया १ इतनी दुबली क्यों हो गयी हो?देखो, तुम्हारा शरीर कितना गर्म है? हाथ नहीं रखा जाता।

सुवामा ने हँसने का उद्योग किया। अपनी बीमारी का परिचय देकर वेटे को कैसे कष्ट दे १ यह नि स्पृह और नि स्वार्थ प्रेम की पराकाष्ठा है।स्वर को हलका करके वोली-नहीं वेटा,वीमार तो नहीं हूँ। आज कुछ ज्वर हो पाया था,सन्ध्या तक चङ्गी हो जाऊँगी। अल्मारी में हलुबा रखा हुअा है,निकाल लो। नहीं,तुम श्राश्रो,बैठो,मैं ही निकाल देती हूँ।

प्रताप-माता,तुम मुझसे वहाना करती हो। तुम अवश्य बीमार हो।एक दिन में कोई इतना दुर्बल हो जाता है?

सुवामा-(हँसकर) क्या तुम्हारे देखने में मैं दुबली हो गयी हूँ?मुझे तो नहीं जान पड़ता।

प्रताप-मैं डाक्टर साहव के पास जाता हूँ।

सुवामा-(प्रताप का हाथ पकड़कर) तुम क्या नानो कि वे कहाँ रहते हैं?

प्रताप-पूछते-पूछते चला नाऊँगा।

{{Gap})सुवामा कुछ और कहना चाहती थी कि उसे फिर चकर या गवा ।उसकी आँखें पथरा गयीं। प्रताप उसकी यह दशा देखते ही डर गया।उससे और कुछ तो न हो सका,वह दौड़कर विरजन के द्वार पर पाया और खड़ा होकर रोने लगा।

प्रतिदिन वह इस समय तक विरनन के घर पहुंच जाता था। अाज वो देर हुई तो वह अकुलायी हुई इधर-उधर देख रही थी। अकस्मात्