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१४१
माधवी
 

१४१ माधवी दोनों स्त्रियाँ घर से बाहर निकली। विरजन का मुखकमल मुरझाया हुआ था, पर माधवी का अग अंग हर्ष से खिला जाता था। कोई उससे पूछे 'तेरे चरण अब पृथ्वी पर क्यों नहीं पड़ते १ तेरे पीले बदन पर क्यों प्रसन्नता की लाली झलक रहो है ? तुझे कौन-सी सम्पत्ति मिल गयी ? तु अब शोकान्वित और उदास क्यों नहीं दिखायी पड़ती ? तुझे अपने प्रियतम से मिलने की अब कोई आशा नहीं तुझ पर प्रेम की दृष्टि कभी नहीं पहुंची, फिर तू क्यों फूली नहीं समाती ?? इसका उत्तर माधवी क्या देगी ? कुछ नहीं । वह सिर झुका लेगी, उसकी आँखें नीचे झुक जायँगी, जैसे डालियाँ फूलों के भार से झुक जाती है । कदाचित् उनसे कुछ अश्रु विन्दु भी टपक पड़ें; किन्तु उसकी जिहा से एक शब्द भी न निकलेगा । माधवी प्रेम के मद से मतवाली है। उसका हृदय प्रेम से उन्मत्त है। उसका प्रेम हाट का सोदा नहीं। उसका प्रेम किसी वस्तु का भूखा नहीं है। यह प्रेम के बदले प्रेम नहीं चाहती। उसे अभिमान है कि ऐसे पवित्रात्मा पुरुप की मूर्चि मेरे हृदय में प्रकाशमान है। यह अभिमान उसकी उन्मत्तता का कारण है, उसके प्रेम का पुरस्कार ह दूसरे मास में वृजरानी ने 'बालाजी' के स्वागत में एक प्रभावशाली कविता लिखी। यह एक विलक्षण रचना थी। जब यह मुद्रित हुई तो घिद्या जगत् विरजन की काव्य-प्रतिभा से परिचित होते हुए भी चमत्कृत हो गया । वह कल्पना-रूपी पक्षी, जो काव्य-गगन मे वायुमण्डल से भी धागे निकल जाता था, अवकी तारा वनकर चमका । एक-एक शब्द आकाश-वाणी की ज्योति से प्रकाशित था। जिन लोगों ने यह कविता पढ़ी, ये बालाजी के भक्त हो गये। कवि वह सॅ पेरा है जिसकी पिटारी में सपा के स्थान में हृदय बन्द होते हैं।