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वरदान
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ईष्या

प्रतापचन्द्र ने विरजन के घर श्राना-जाना विवाह के कुछ दिन पूर्व ही से त्याग दिया था। वह विवाह के किसी भी कार्य में सम्मिलित नहीं हुआ । यहाँ तक कि महफिल में भी न गया । मलिन मन किये, मुँह लटकाये, अपने घर बैठा रहा। मुन्शी सजीवनलाल, सुशीला, सुवामा सब विनती करके हार गये; पर उसने बरात की ओर दृष्टि भी न फेरी। अन्त में मुन्शीनी का मन टूट गया और फिर कुछ न बोले। यह दशा विवाह के होने तक थी। विवाह के पश्चात् तो उसने उधर का मार्ग ही त्याग दिया । स्कूल बाता तो इस प्रकार एक अोर से निकल जाता, मानो आगे कोई बाघ बैठा हुआ है, या जैसे महाजन से कोई ऋणी मनुष्य आँख बचाकर निकल जाता है । विरजन की तो परछाह से मागता । यदि कभी उसे अपने घर में देख पाता तो भीतर पग न देता। माता समझाती-वेटा ! तुम विरजन से बोलते-चालते क्यों नहीं हो १ क्यों टससे मन मोटा किये हुए हो ? वह आ आकर घण्नों रोती है कि मैंने क्या किया है, जिससे वे रुष्ट हो गये । देखो, तुम और वह कितने दिनों तक एक सग रहे हो । तुम उसे कितना प्यार करते थे । अकस्मात् तुमको क्या हो गया १ यदि तुम ऐसे ही रूठे रहोगे तो वेचारी लड़की की जान पर वन जायगी। सूखकर कांटा हो गयी है। ईश्वर जानता है, मुझे उसे देखकर करुणा उत्पन्न होती है । तुम्हारी चर्चा के अतिरिक्त उसे कोई बात ही नहीं भाती। प्रताप ओसेनीची किये हुए यह सब सुनता और चुपचाप सरक जाता। प्रताप अब भोला बालक नहीं था। उसके जीवनरूपी वृक्ष में यौवनरूपी कोपले फूट रही थीं। उसने बहुत दिनों से-उसी समय से जबसे उसने होश सँभाला-विरजन के नीवन को अपने जीवन में शर्करा-क्षीर की भौति मिला लिया था । उन मनोहर और सुहावने स्वप्नों का इस कठोरता और निर्दयता से धूल में मिलाया जाना उसके कोमल हृदय को विटीर्ण करने