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ईर्ष्या
 

के लिए काफी था। वह, जो अपने विचारों में विरजन को अपना सर्वस्व समझता था, कहीं का न रहा, और वह, जिसने विरजन को एक पल के लिए भी अपने ध्यान में स्थान न दिया था, उसका सर्वस्व हो गया। इस वितर्क से उसके हृदय में व्याकुलता उत्पन्न होती थी और जी चाहता था कि जिन लोगों ने मेरी स्वप्नवत् भावनाश्नों का नाश किया है और मेरे जीवन की आशाओं को मिट्टी में मिलाया है, उन्हें मै भी जलाऊँ और सुलगाऊँ। सबसे अधिक क्रोध उसे जिस पर आता था, वह वेचारी सुशीला थी।

शनै शनै उसकी यह दशा हो गयी कि जब स्कूल से आता तो कमला चरण के सम्बन्ध की कोई घटना अवश्य वर्णन करता। विशेषकर उस समय, जब सुशीला मी बैठी रहती। उस बेचारी का मन दुखाने में इसे बड़ा ही आनन्द आता। यद्यपि मिथ्या भाषण से उसे घृणा थी, नो कुछ कहता, सत्य ही कहता था, तथापि अव्यक रीति से उसका कथन और वाक्य-गति ऐसी हृदय-भेटिनी होती थी कि सुशीला के कलेजे में तीर की भांति लगती थी। आन महाशय कमलाचरण तिपाई के ऊपर खडे थे, मस्तक गगन को स्पर्श करता था। परन्तु निर्लज इतने बड़े कि जब मैने उनकी ओर सकेत किया तो खड़े-खड़े हँसने लगे । श्रान बड़ा तमाशा हुअा। कमल ने एक लड़के की घड़ी उड़ा दी। उसने मास्टर से शिकायत की । उसके समीप वे ही महाशय बैठे हुए थे । मास्टर ने खोज की तो श्राप ही के फेटे में से घड़ी मिली। फिर क्या था ? बड़े मास्टर के यहां रिपोर्ट हुई । वह सुनते ही झल्ला गये और कोई तीन दर्जन बेंतें लगायीं सड़ासड़। सारा स्कूल यह कुतूहल देख रहा था। जब तक वेते पड़ा की, महाशय चिल्लाया किये, परन्तु बाहर निकलते ही खिलखिलाने लगे; और मूंछों पर ताव देने लगे। चची ! नहीं सुना ? आन लड़कों ने ठीक स्कूल के फाटक पर कमलाचरण को पीटा । मारते-मारते वेसुध कर दिया ? सुशीला ये बातें सुनती और सुन-सुनकर कुढ़ती । हाँ। प्रताप ऐसी कोई बात बिरनन के सामने न करता।