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वरदान
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प्रेमवती-अच्छा,तो जानो,पर सन्ध्या तक लौट आना। गाड़ी तैयार करवा लो,मेरी ओर से सुवामा को पालागन कह देना।

विरजन ने कपड़े बदले। माधवी को बाहर दौड़ाया कि गाड़ी तैयार करने के लिए कहो और तब तक कुछ ध्यान पाया। रधिया से पूछा-कुछ चिट्ठी-पत्री नहीं दी?

रधिया ने पत्र निकालकर दे दिया। विरजन ने उसे बड़े हर्ष से लिया,परन्तु उसे पढते ही उसका मुख कुम्हला गया। सोचने लगी कि वह द्वार तक आकर क्यों लौट गये? और पत्र भी लिखा तो ऐसा उखड़ा और अस्पष्ट। ऐसी कौन जल्दी थी? क्या गाडी के नौकर थे,दिन-भर में अधिक नहीं तो पांच-छ:गाड़ियाँ नाती होंगी। क्या मुझसे मिलने के लिए उन्हें दो घण्टे का विलम्ब भी असह्य हो गया? अवश्य इसमें कुछ-न-कुछ भेट है। मुझसे क्या अपराध हुया? अचानक उसे उस समय का ध्यान आया,जब वह अति व्याकुल हो प्रताप के पास गयी थी और उसके मुख से निकला था,'लल्लू मुझसे कैसे सहा बायगा।' विरजन को अब से पहिले कई वार ध्यान या चुका कि मेरा उस समय उस दशा में नाना बहुत अनुचित था। तुरन्त विश्वास हो गया कि मैं अवश्य लल्लु की दृष्टि से गिर गयी। मेरा प्रेम और मन अव उनके चित्त में नहीं है। एक टएदी सांस लेकर बैठ गयी और माधवी से बोली-कोचवान से कह दो,अब गाड़ी न तैयार करे। मैं न जाऊँगी।

सब तक विरजन ससुराल न आयी थी,तब तक उसकी दृष्टि में एक हिन्दू-पतित्रता के कर्त्तव्य और आदर्श का कोई नियम स्थिर न हुआ था। घर में कभी पति-सम्बन्धिनी चची मी न होती यो। उमने स्त्री-धर्म को