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कर्तव्य और प्रेम का संघर्ष
 


मार्ग लेता,कमी पश्चिम का,कभी उत्तर का और कभी दक्षिण का।दौड़ते-दौड़ते फील्डरों की साँसे फूल गयीं। प्रयागवाले उछलते थे,तालियां बजाते थे। टोपियां वायु मे उछल रही थीं। किसी ने रुपये लुटा टिये और किसी ने अपनी सोने की नक्षीर लुटा दी। विपक्षी मन में कुढते,झलाते;कभी क्षेत्र का क्रम परिवर्तन करते, कमी बॉलर परिवर्तन करते। पर सब चातुरी और क्रीड़ा-कौशल निरर्थक हो रहा था। गेंट की थापी से मित्रता दृढ हो गयी थी। पूरे दो घण्टे तक प्रताप पड़ाके,बम्ब-गोले और हवाइया छोड़ता रहा और फील्डर गेंट की ओर इस प्रकार लपकते जैसे बच्चे चन्द्रमा की ओर लपकते हैं। रनों की संख्या तीन सौ तक पहुँच गयी। विपक्षियों के छक्के छूटे। हृदय ऐसा थर्रा गया कि एक गेंद भी सीधा न पाता था। यहां तक कि प्रताप ने पचास रन और किये,और अब उसने अम्पायर से तनिक विश्राम करने के लिए अवकाश मांगा। उसे आता देखकर सहस्रों मनुष्य उसी ओर दौड़े और उसे वारी-बारी से गोद में उठाने लगे। चारों ओर भगदड़ मच गयी। सैकड़ों छाते,छड़ियाँ,टोपिया और जूते अर्ध्वगामी हो गये,मानो वे भी उमङ्ग में उछल रहे थे। ठीक उसी समय तारघर का चपरासी वाइसिकल पर नाता हुआ दिखायी दिया। निकट आकर वोला-'प्रतापचन्द्र किसका नाम है"प्रताप ने चौंककर उसकी ओर देखा और चपरासी ने तार का लिफाफा उसके हाथ में रख दिया। उसे पढ़ते ही प्रताप का बदन पीला हो गया। दीर्घ श्वास लेकर कुर्सी पर बैठ गया और बोला-"यारो! अव मैच का निवारा तुम्हारे हाथ में है। मैंने अपना कर्त्तव्य-पालन कर दिया, इसी डाक से घर चला जाऊँगा।"

यह कहकर वह बोर्डिङ्ग-हाउस की ओर चला। सैकड़ों मनुष्य पूछने लगे-"क्या है? क्या?" लोगों के मुख पर उदासी छा गयी,पर उसे बात करने का कहाँ अवकाश! उसी समय तांगे पर चढ़ा और स्टेशन की ओर चला। रास्ते-भर उसके मन में तर्क-वितर्क होते रहे। वार-बार अपने को