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स्नेह पर कर्त्तव्य की विजय
 

काशी छोड़कर आगरे में कौन मरने जाय! विरजन ने यह विचार सुना तो बहुत प्रसन्न हुई। ग्राम्य-जीवन के मनोहर दृश्य उसके नेत्रों मे फिर रहे थे। हरे-भरे वृक्ष और लहलहाते हुए खेत, हरिणों की क्रीड़ा और पक्षियों का कलरव। यह छटा देखने के लिए उसका चित्त लालायित हो रहा था। कमलाचरण भी शिकार खेलने के लिए अस्त्र-शस्त्र ठीक करने लगे। पर अचानक मुशीजी ने उसे बुलाकर कहा कि तुम प्रयाग जाने के लिए तैयार हो जायो। प्रतापचन्द्र वहाॅ तुम्हारी सहायता करेगा। गॉवों में व्यर्थ समय विताने से क्या लाभ? इतना सुनना था कि कमलाचरण की नानी मर गयी। प्रयाग जाने से इन्कार कर दिया। बहुत देर तक मुंशीजी उसे समझाते रहे, पर वह जाने के लिए राजी न हुआ। निदान उनके इस अन्तिम शब्दों ने यह निपटारा कर दिया-तुम्हारे भाग्य में विद्या लिखी ही नहीं है। मेरी मूर्खता है कि उससे लड़ता हूँ।

वृजरानी ने जब यह बात सुनी तो उसे बहुत दुःख हुआ। वृजरानी यद्यपि समझती थी कि कमला का ध्यान पढ़ने में नहीं लगता; पर जब तब यह अरुचि उसे बुरी न लगती थी बल्कि कभी कभी उसका जी चाहता कि आज कमला स्कूल न जाते तो अच्छा था। उनकी प्रेममय वाणी उसके कानों को बहुत प्यारी मालूम होती थी। पर जब उसे यह ज्ञात हुआ कि कमला ने प्रयाग जाना अस्वीकार किया और लालाजी बहुत समझा रहे हैं, तो उसे और भी दुःख हुआ। क्योंकि उसे कुछ दिनों अकेले रहना सह्या था, पर कमला पिता का आशोल्लंघन करे, यह सह्य न था। माधवी को भेजा कि अपने भैया को बुला ला। पर कमला ने जगह से हिलने की शपथ खा ली थी। सोचता कि भीतर जाऊँगा, तो वह अवश्य प्रयाग जाने के लिए कहेगी। यह क्या जाने कि यहाँ ह्रदय पर क्या बीत रही है। बातें तो ऐसी मीठी-मीठी करती है, पर जब कभी प्रेम-परीक्षा का समय आ जाता है, तो कर्तव्य और नीति की ओट में मुख छिपाने लगती है। सत्य है कि स्त्रियों में प्रेम की गन्ध ही नहीं होती।