पृष्ठ:विक्रमांकदेवचरितचर्चा.djvu/५

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भूमिका।

इस निबन्ध में जहाँ कहीं हमने बिल्हण के प्रतिकूल कुछ कहा है उसे पाठक बिल्हण की अप्रतिष्ठा का कारण न समझें। किसी की रचना की आलोचना करने में समालोचक यदि शुद्ध हृदय से अपनी सम्मति प्रकट करे तो उससे उसकी अप्रतिष्ठा नहीं होती। बिल्हण की अप्रतिष्टा या निन्दा करने का विचार तो दूर रहा, उलटा हमने उनका परिचय हिन्दी जाननेवालों से करा कर उनकी ख्याति को बढ़ाने का प्रयत्न किया है।

जुही, कानपुर
३ जनवरी सन् ०७
महावीरप्रसाद द्विवेदी