का प्रयत्न करता है। मनुष्य वहाँ जैसे बस्ती से बाहर निकल आता है। वह जैसे यथा-संभव मनुष्य-लोक के संसर्ग से रहित देव-लोक का आदर्श है।
इसीसे भुवनेश्वर-मन्दिर के चित्रों को देखकर पहले मन में बड़ा भारी विन्मय का धक्का लगता है। हम यदि स्वाभाविक स्थिति में होते, यदि बाल्यकाल ही से हमने शिक्षा के अनुसार स्वर्ग-लोक और मनुष्य-लोक के बीच बड़ा भारी अन्तर न समझ लिया होता, तो शायद इतना विन्मय न होता। हम सतर्क रहते हैँ कि देव- आदर्श में मनुष्य भाव की छाँह न पड़ने पावे―देवता और मनुष्य के बीच में जो अत्यन्त पवित्र लम्बा चौड़ा अन्तर है उसे क्षुद्र मनुष्य कही, कुछ भी, नाव न जाय।
पर यहाँ तो मनुष्य जैस देवता के देह पर एकदम आकर गिर पड़ा है। सो भी अपने शरीर की धूल झाड़ कर नहीं। गति- शील, कर्म-परायण, धूलि-धूसर संसार की मूर्ति बिना किसी संकोच के ऊँची होकर देवता की मूर्त्ति को ढँके हुए है।
मैं मन्दिर के भीतर गया। वहाँ एक भी चित्र नहीं है, प्रकाश भी नहीं है। सजावट से खाली एकान्त अव्यक्तता के भीतर नि:स्तब्ध दव-मूर्ति विराजमान है।
इसका एक बड़ा अर्थ मन में प्रकट हुए बिना नहीं रहता। मनुष्य ने इन पत्थरों की भाषा में जो कहने का प्रयत्न किया था वह उस बहुत प्राचीनकाल में आकर मेरे मन में प्रतिध्वनित हो उठा।
वह बात यही है, कि देवता दूर नहीं हैं, गिरजे में भी नहीं