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विचित्र प्रबन्ध।

हैं किन्तु हम लोगों के हृदय में ही विराज रहे हैं। वह जन्म- मृत्यु, सुख-दुःख, पाप-पुण्य, मिलन और विच्छेद के बीच में अचल भाव से खड़े हैं। यह संसार ही उनका पुराना मन्दिर है। यह सजीव और सचेतन भारी देव-मन्दिर प्रति दिन विचित्रता के साथ निर्मित होता रहता है। यह किसी समय नवीन नहीं है और किसी समय पुराना भी नहीं होता। इसका कुछ भी स्थिर नहीं है, सभी निरन्तर परिवर्नन शील है। तथापि इनको महती एकता, सत्यता और नित्यता नष्ट नहीं होती। क्योंकि इसकी चंचल विचित्रता में एक नित्य सत्य प्रकाशित है।

भारतवर्ष में बुद्धदेव ने मनुष्य का बड़ा बनाया है। वे जाति- पाँति नहीं मानते थे। योग-यज्ञ करने में भी उन्होंने मनुष्यों को छुटकारा दे दिया है। देवता को मनुष्य के लक्ष्य उन्होंने हटा दिया है। उन्होंने मनुष्यों की आत्मशत्ति की आराधना का प्रचार किया है। उन्होंने दया और कल्याण की प्रार्थना स्वर्ग से नहीं की है; उन्होंने तो मनुष्यों के हृदय से ही इन दोनों को निकालने की चेष्टा की है।

इसी प्रकार श्रद्धा के द्वारा, भक्ति के द्वारा उन्होंने मानव- हृदय की ज्ञान-शक्ति और उद्यम को महान् बनाया है। उन्होंने यह घोषणा की है कि मनुष्य दीन, देवाधीन तथा तुच्छ पदार्थ नहीं है।

इसी समय हिन्दुओं के चित्र ने भी मजीव होकर कहा―यह बात ठीक है, मनुष्य दीन हीन नहीं है। क्योंकि मनुष्य की शक्ति ही―जिसने उसे मुख में भाषा दी है, मन में बुद्धि दी है, हाथों