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मन्दिर।

में कारीगरी दी है, जो समाज को गठित करती है और संसार का चलाती है―दैवी शक्ति है।

बुद्धदेव ने जिस विशाल महोच्च मन्दिर की रचना की, उसी मन्दिर में नवप्रबुद्ध हिन्दुओं ने अपने देवता को पाया। बौद्धधर्म हिन्दुधर्म के अन्तर्गत हो गया। मनुष्य के भीतर देवता का प्रकाश है, संसार के भीतर देवता की प्रतिष्ठा है, हम लोगों के प्रतिमुहूर्त के सुख-दुख में देवता का सञ्चार है; यही नये हिन्दू-धर्म के मर्म की बात (सिद्धान्त) हा उठी। शाक्त की शक्ति और वैष्णव का प्रेम घर घर में व्याप्त हो गया। मनुष्य के छोटे छोटे कामों में भी शक्ति की प्रत्यन सहायता और मनुष्य के स्नेह-प्रेम के सम्बन्ध में भी दिव्य प्रेम की प्रत्यक्ष लीला बहुत ही निकटवर्ती होकर देख पड़ी। इस देवता के आविर्भाव से छोटे-बड़े का भेद मिटने की चेष्टा होने लगी। समाज में जो घृणित समझे जाते थे वे भी अपने को देवी शक्ति का अधिकारी समझ कर अभिमान से फूल उठे। प्राकृन पुराणों में इसका इतिहास है।

उपनिषद् में एक मन्त्र है―


"वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्टत्येकः।"

जो एक है वह आकाश में वृक्ष के समान अटल भाव से खड़ा है। भुवनेश्वर का मन्दिर इसी मन्त्र को एक विशेष रूप से इस प्रकार पढ़ रहा है कि जो एक है वह इस मानव-संसार में अटल भाव से अवस्थित है। जन्म-मृत्यु का आना-जाना हम लोगों की आँखों के सामने से प्रतिदिन घूमा करता है, सुख और दुःख उठते और गिरते हैंँ। पाप और पुण्य, प्रकाश और अन्धकार के द्वारा,