पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/१०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९४
विचित्र प्रबन्ध।

संसार की दीवार को व्याप्त कर रहे हैं। सब विचित्र है, सब चञ्चल है। उसी के भीतर बिना सजावट के एकान्त स्थान में वही 'एक' वर्तमान है। यह सब अस्थिर पदार्थ उसी स्थिर का शान्ति- निकेतन हैं―यह परिवर्तन-परम्परा उसी नित्य का स्थायी प्रकाश है। देवता, मनुष्य, स्वर्ग, मर्त्य, बन्धन और मुक्ति का यही अनन्त सामञ्जस्य है। यही बात वहाँ पत्थर की भाषा में लिखी है।

उपनिषद् ने एक उपमा द्वारा इसी बात को प्रकट किया है―

"द्वा सुपणी सयुजा सखाया समानं वृक्ष परिपम्बजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वच्यश्रन्नन्योऽभिचाकशीति॥"

दो सुन्दर पक्षी एक साथ एक वृक्ष पर रहते हैं। उनमें एक मधुर पिप्पल का फल खाता है और दुसरा खाता नहीं, केवल देखता है।

जीवात्मा और परमात्मा का ऐसा सायुज्य, ऐसा सारूप्य, ऐसा सालोक्य, इस प्रकार अनायास, एसी स्वाभाविक उपमा के द्वारा, ऐसे सरल साहस के साथ और कहाँ कहा गया है! जीव के साथ भगवान् की सुन्दर समता को जैसे कोई प्रत्यक्ष आँखों से देख कर उसका वर्णन कर उठा है। इसी कारण उसे उपमा के लिए आकाश-पाताल का टटोलना नहीं पड़ा। वनवासी कवि ने वन के दो सुन्दर पक्ष वाले पक्षियों के समान ससीम और असीम को साथ साथ बैठे देखा है। इसी कारण उन्होंने इस गूढ़ तत्व को किसी बड़ी उपमा के द्वारा बहुत बड़ा बना डालने की चेष्टा भी नहीं की। दो छोटे पक्षी स्पष्ट रूप से अनुभवगम्य हैं, सुन्दर भाव से देख पड़ते हैं; उनमें नित्य के परिचय की सरलता है। किसी