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छोटा नागपुर।

सुन पड़ता है। उसी शब्द के ताल के साथ मस्तिष्क के भीतर अनेक अनोखे स्वप्न रात भर नाचा करते हैं। रात के चार बजे मधुपुर स्टेशन पर गाड़ी बदलनी पड़ी। अन्धकार भी मिटने लगा। उसी प्रातः काल के प्रकाश में गाड़ी की खिड़की के पास बैठ कर मैं बाहर की ओर देखने लगा।

गाड़ी बराबर आगे बढ़ी चली जा रही है। चारों ओर के मैदान में कहीं कहीं पर सूखी नदी की बालू की रखा देख पड़ती है। नदी के गर्भ में बड़े बड़े काले पत्थर निकले हैँ जो पृथिवी के कङ्काल के समान मालूम पड़ते हैं। बीच बीच में सिरों के समान पहाड़ खड़े हैं। दूर के नाले पहाड़ देख कर जान पड़ता है, मानों नीले मेघ आकाश से पृथिवी पर खेलने के लिए आये थे और वे यहाँ पकड़ कर बांध लिये गये हैं, वे आकाश में उड़ जाना चाहते हैं, परन्तु बंधे रहने कार उड़ नहीं सकते। आकाश में उनके सजातीय मेघ आते है और उनसे मिल कर, उनका आलिङ्गन कर, चले जाते हैं। यह देखो, पत्थर के समान काला सिर पर बालों की चोटी बाँधे, हाथ में लाठी लिये एक मनुष्य खड़ा है। दो भैसों के कन्धों पर हल रक्खा हुआ है। अभी खेत का जोता जाना प्रारम्भ नहीं हुआ है। भैंसे रेलगाड़ी की ओर टकटकी लगायें खड़े हैँ। बीच बीच की भूमि घीकुआर से घेरी गई है। वह स्वच्छ सुशोभित हो रही है। बीच में पक्का कुआँ हैं। उनके चारों ओर सुखी जगह देख पड़ती है। पतली लम्बी और सूखी घास बूढ़ों कं पके हुए बालों की तरह देख पड़ती है। छोटे छोटे पत्र-हीन गुल्म सूख कर काले पड़ गये हैं। दूर दूर पर ताड़