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विचित्र प्रबन्ध।

के पेड़ छोटा सिर लिये एक लंबे पैर से खड़े हैं। बीच बीच में पीपल और आम के वृत्त भी देख पड़ते हैं। सूखे खेत में एक पुरानी झोपड़ी की, छप्पर से रहित, टूटी दीवार खड़ी हुई अपनी छाया की ओर देख रही है। पास ही एक जला हुआ बड़े पेड़ का ठूँठ है।

मैं प्रातःकाल छः बजने के समय गिरिडीह स्टेशन पर पहुँचा। आगे रेलगाड़ी नहीं है। यहाँ से डाकगाड़ी पर जाना होगा। डाक- गाड़ी को मनुष्य घसीट कर ले जाते हैं। तो क्या इसे गाड़ी कहना उचित है? इसमें चार पहिय हैं और उन पर एक छोटा पिजड़ा सा रक्खा हुआ है।

सबसे पहले गिरिडीह के डाक-बँगले मेँ जाकर मैँ स्नान-भोजन आदि से निवृत्त हुआ। डाक-बँगले के चारों ओर, जहाँ तक नज़र गई, घास का कहीं नाम भी न देख पड़ा। बीच बीच में कुछ पेड़ खड़े हैं। चारों ओर जैसे रङ्गीन मिट्टी की लहरें उठ रही हैं। एक दुबला-पतला बीमार सा टट्टू पेड़ के नीचे बँधा हुआ है। वह चारोँ ओर देखता है परन्तु उसे खाने को कोई चीज़ नहीं देख पड़ती। अब वह बेचारा करें तो क्या करे, कोई काम तो है ही नहीं; बेचारा पेड़ के ठूँठ में अपना शरीर घिस रहा है। वहीं एक वृक्ष के नीचे लंबी रस्सी में एक बकरा बँधा है। वह बड़ी खोज से कहीं हरी हरी एक आध घास पा जाता है और उसे प्रसन्नता- पूर्वक चरता है। मैं यहाँ से आगे बढ़ा। पहाड़ी राह है। आगे- पीछे, जिधर देखो उधर, बड़ी दूर तक देख पड़ता है। सूखे, निर्जन और विस्तृत मैदान में साँप के समान टेढ़ा मेढ़ा छायाहीन लम्बा मार्ग मानों धूप में सोया हुआ है। कभी गाड़ी बड़े कष्टों से