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छोटा नागपुर।

खींच खाँच कर, ठेल ठाल कर, चढ़ाई के रास्ते पर चढ़ाई जाती है और कभी ढालू रास्ते पर बड़े वेग से गड़ गड़ गई करती उतर जाती है। इस प्रकार धीरे धीरे आगे जाने पर आस पास पहाड़ दख पड़ने लगे। लम्बे लम्बे सीधे साखू के पेड़ तथा कटे वृक्षों के खुत्थे भी नज़र आते थे। बड़े बड़े लम्बे पत्र-हीन वृक्षों से पहाड़ के सब अंश ढके हुए हैं। उपवासी वृक्ष शुष्क जीर्ण और अस्थिमय हाथ आकाश की और उठाये खड़े है! इन पहाड़ों को देखने से मालूम होता है कि ये मानों हज़रों तीरों से बिंधे हुए हैं; मानों ये भीष्म की शरशय्या हैं। इसी समय आकाश मेघों से भर गया और धीरे धीरे पानी पड़ने लगा। कुली गाड़ी खींचते खींचते बीच में बड़े जोर से चिल्ला उठते है। बीच बीच में मार्ग के पत्थरों से ठोकर खा कर गाड़ी ठहर जाती है। बीच में एक जगह मार्ग का अन्त देख पड़ा। आगे रेती और उसके बीच में एक नदी की क्षीण रेखा देख पड़ी। नदी का नाम पूछने पर कुलियों ने कहा, यह 'बड़ेकर' नदी है। खीच खीच कर गाड़ी नदी के पार पहुँचाई गई। फिर हम लोग रास्ते पर पहुँचे। रास्ते के दानों और गढ़ों में पानी भरा हुआ है। उसमेँ चार पाँच भैंसे एक दूसरे के शरीर पर सिर रक्खे हुए बैठे हैंँ। उनका आधा शरीर जल में डूबा है। वे बड़े आलस्य से कभी कभी हम लोगों की ओर नज़र उठा कर देख लेते हैं।

उस समय सन्ध्या हो गई थी। हम लोग गाड़ी से उतर कर पैदल चले। पास ही एक पहाड़ था, उसीके बीच से ऊँचा-नीचा मार्ग गया है। जिधर देखो उधर ही शून्य है, न मनुष्य हैं, न गाँव हैं, न अन्न के खेत हैंँ, और न जोती-बोई धरती ही है। चारों ओर