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छोटा नागपुर।

तीन बजने के समय हम हज़ारी-बाग़ के डाक-बँगले में पहुँचे। लम्बे चौड़े मैदान में हज़ारी-बाग़ शहर बहुत ही सुन्दर और साफ़-सुथरा देख पड़ता है। इसमें शहर का भाव विशेष नहीं देख पड़ता। छोटी छोटी गलियाँ, कूड़ा-कर्कट, नालियाँ, भीड़, शोर-गल गाड़ी-घोड़ा, धूल-कीचड़, मक्खी-मच्छड़ आदि की अधिकता यहाँ नहीं है। मैदान, पहाड़ और वृक्षों के बीच में यह शहर बसा है।

एक दिन बीत गया। इस समय दोपहर है। डाक-बँगले के सामने कुरसी पर अकेले चुपचाप बैठा हूँ। आकाश स्वच्छ नीलवर्ण है। दो छोटे छोटे मेघ सफेद 'पाल' के समान उड़त चले जा रहे हैँ। धीरे धीरे हवा चल रही है। एक प्रकार की मीठी मीठी गन्ध आ रही है, बरामदे की छत पर एक गिलहरी है। दो गलगलियाँ बरामद मेँ आकर चकित भाव से इधर उधर देखती, पँछ हिलाती और इधर उधर फुदकती हैँ। पास के रास्ते से बैल, भैंसे आदि जा रहे हैं। उनके गले के घण्टे का शब्द सुनाई पड़ रहा है। कोई छाता लगाये काई कंधे पर गठरी रक्खे, कोई दो-एक पशुओं को हाँकते और कोई टट्टू पर चढ़े उस मार्ग से धीरे धीरे मजे मेँ जा रहे हैं। कोलाहल नहीं है। घबराहट नहीं है। किसी के चेहरे पर चिन्ता का चिह्न नहीं है। देखने से मालूम होता है कि यहाँ के मनुष्यों का जीवन एंजिन के समान बड़े वेग से अथवा बड़े बोझ से दबी हुई बैलगाड़ी के पहिये के समान आर्तनाद करता हुआ नहीं व्यतीत होता। जिस प्रकार वृक्षों की छाया में शीतल प्रवाह धीरे धीरे कल कल करता हुआ बहता है उसी प्रकार यहाँ के मनुष्यों का जीवन भी शान्त है। सामने ही वह कचहरी है। पर