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विचित्र प्रबन्ध।

यहाँ की कचहरी की भी वैसी कठोर मूर्ति नहीं है। जिस समय अदालत के भीतर दो वकील परस्पर बहस करते हैं उस समय बाहर पीपल के पेड़ पर दो पपीहे आपस में उत्तर-प्रत्युत्तर कर रहे हैं। विचार-प्रार्थी लोग आम की छाया में बैठ कर 'हाहा-हाहा' हँस रहे हैं। उसे मैं यहीं से सुन रहा हूँ। बीच बीच में कचहरी में दोपहर को हर घण्टे पर घण्टा बजता है। चारों और जहाँ जीवन की मृदु-मन्द-गति है वहाँ इस घण्टे का शब्द सुनने से जान पड़ता है कि शिथिलता के प्रवाह में समय बह नहीं गया। समय बीच में खड़ा होकर प्रत्येक घण्टे के अन्त में लोह-कण्ठ से कहता है―और कोई जागे चाहे न जागे, मैं जाग रहा हूँ! परन्तु लेखक की दशा ठीक वैसी नहीं है। मेरी आँखों में नींद आ रही है।


सरोजिनी की यात्रा

[ अपूर्ण विवरण ]

( १ )

आज जेठ की एकादशी तिथि और शुक्रवार है। अँगरेज़ी तारीख २३वीं मई, सन् १८८४ है। आज शुभ मुहूर्त में सरोजिनी नाम का भाप से चलनेवाला जहाज़ अपनी सङ्गिनी दो लोहे की नावों को लेकर बरीसाल को, अपने काम पर जाने के लिए, प्रस्थान करेगा। जानेवालों की भीड़ बढ़ गई। हम तीन आदमियों के जाने की बात थी। हम तीनों ही सयाने मर्द हैँ। हम लोगों का सब सामान बँधा-बँधाया तैयार है। हम उदास मुख लिये बड़ी ही दिल्लगीबाज़