पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/११५

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विचित्र प्रवन्ध मढ़ा हुआ, चार पैर वाला, हडियां का ढाँचा (दुबला पतला घाड़ा) नीचे गर्दन करके बहुत ही सूखी घास का अन्यमनस्क भाव से खा रहा है। उसका यह पारमार्थिक भाव दंग्यन से मालूम होता है कि संसार को सभी उत्तम वस्तुओं से इस सूखी घास की तुलना करकं उसने दानों की सारवत्ता और सरसता में कुछ अन्तर नहीं देख पाया । दक्षिण की प्रार मुसल्माने की दुकानों में खाल खींचे हुए बकरा के अंग-प्रत्टांग रस्मियों में बंध लटक रहे हैं ! कुछ मांस कं टुकड़े लोहे की मलाग्य में प्राग पर पकायं जा रहे हैं। कहीं बड़े बड, लाल रंग के, सिर मुंड दाढ़ी वाले अपने लम्बन्तम्ब हाथों से बड़ी बड़ी गटियाँ मेंक रहे है। कबाब की दुकान के पास ही शीशा गलान और ढालने की दृकानें है। वहां कुछ रात रहं में ही भट्टी में प्राग जला दी गई है। काई टहर खान कर हाथ-मुँह था रहा है, काई दूकान के सामने झाडू दे रहा है और काई बुट्टा.... जिसकी दाढ़ी बिज्ञाब से लाल होगई है----माखां पर चशमा चढ़ाय कोई फ़ारसी की किताब पड़ रहा है। सामने ममजिद है। मसजिद की सीढ़ी पर एक भिक्षुक हाथ फैलाये बड़ा गङ्गा के किनारे हम कोयला घाट पर पहुँचे । सामने सं छाई हुई बड़ी बड़ी नावें, पुराने समय के दैत्यों के पैर की माप से बने हुए जता कं ममान, जान पड़ती हैं ! मालूम होता है कि आज उनमें किसी प्रकार प्राण आ गये हैं और वे उन अनुपस्थित चरणों का स्मरण कर शीव्र चलने के समय की प्रतीक्षा में चंचल हो रही हैं। यही उनका भाव जान पड़ता है कि एक बार चलने पावें तो बस तं उड़ें । वे ऊपर उठती हैं और किनार की ओर देखती हैं 1