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सरोजिनी की यात्रा।

कर ऊपर चढ़ना चाहती हैं। उनमें से कोई काई सबसे अलग होकर, सफेद फेने का फन फैला कर, एकाएक जहाज़ के डेक के ऊपर जैसे साँप की तरह चोट मारने आती हैं―गरजती हैं, और पीछे के साथियों का सिर ऊँचा करके पुकारती हैं। और, फिर घमण्ड से फूल फूल कर लौट जाती हैं। सिर के ऊपर सूर्य की किरणें उज्वल आँखों के समान चमकती है। व लहरें झपट कर नावों को पकड़ती हैं; और उनमें क्या है, यह देखने के लिए ऊपर उठती हैं। अपनी अभिलाषा तृप्त करके, नाव को झोंका देकर, फिर वे न जाने कहाँ चली जाती हैं। आफ़िस की छोटी छोटी पनसुइयाँ (छोटी नावें) अपना पाल उड़ाती―और अपनी मीठी चाल के आनन्द का जैसे आप ही भागती हुई―चली जा रही हैं। वे मस्तूल के किरीट धारण करनेवाले बड़े जहाज़ो की गम्भीरता को कुछ भी चीज़ नहीं समझती, स्टीमरों के गर्जन को भी कुछ नहीं समझती। वे बड़े बड़े जहाज़ों के सामने से 'पाल' डुलाती हँसती रंग-तमाशा करती निकल जाती हैं। जहाज़ भी इससे अपना कुछ अपमान नहीं समझने। किन्तु गधा-बोटों का बर्ताव और ही है। उनके हटने में तीन घण्टे लगते हैं, उनका आकार भी मोटी बुद्धि के समान बिलकुल भद्दा है। वे स्वयं हट नहीं सकते, अतएव जहाज़ ही को हटना पड़ता है। जब वे जहाज़ के पास आ जाते हैं तब उनकी यह शेखी देखी नहीं जाती।

एक दिन सुना गया कि हम लोगों के जहाज़ का कप्तान नहीं है। जहाज़ चलने के पहले ही वह कहीं ग़ायब हो गया है। यह सुनते ही हमारी भाभी की सुध-बुध जाती रही। लङ्गर डाल