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सरोजिनी की यात्रा।

और कुछ किरणें वृक्ष-श्रेणी के हिलते हुए हरे नवीन पत्तों पर चमक रही हैं। वहीं एक छोटी नाव एक वृक्ष की जड़ से बँधी हुई है। वह वहीं छाया के नीचे जल के कलकल शब्द में हिल- कोरे खाकर बड़े मज़े में सो रही है। उसी की बग़ल में वृक्षों की घनी छाया में होकर टेढ़ी मेढ़ी एक पगडण्डी जल के किनार तक आई है। इसी मार्ग से गाँव की औरतें घड़ा बग़ल में दबा कर पानी भरने के लिए आ रही हैं। लड़के कीचढ़ पर लोट पोट कर नदी में कूद जाते और तैरते हैं। पुराने टूटे घाटों की कैसी बिल- क्षण शोभा है। मनुष्यों ने इन घाटों को बनाया है, यह बात जैसे भूल जाती है। ये भी वृक्ष-श्रेणियों के समान गङ्गा तीर की अपनी सम्पत्ति हैं। इनकी बड़ी बड़ी दरारों में से पीपल के पेड़ उगे हैँ, टुटी सीढ़ियों मेँ इंटों के बीच से घास निकल आई है। बहुत दिनों से, सैकड़ों वर्षों से, इन पर होकर वर्षा का जल बहने के कारण ऊपर काई जम गई है, और इसीसे उनका रङ्ग चारों और की सब्जी में बिलकुल मिल गया है। मनुष्य का काम समाप्त होने पर प्रकृति ने अपने हाथ से उसका संशोधन कर दिया है; कूची लेकर इधर उधर अपना रंग लगा दिया है। उसने अत्यन्त कठिन गर्व से पूर्ण उज्वल सजावट को नष्ट करके टूटा फूटा विश्रृंखल माधुर्य स्थापित कर दिया है। गाँव के जो लड़के या लड़कियाँ नहाने के लिए अथवा जल लेने के लिए आते हैं उन सबके साथ इनका जैसे कोई सम्बन्ध है। उनमें कोई तो इनकी नातिन हैं और कोई मा-मौसी हैं। उन बच्चों के दादा और दादी जब छोटे से थे तब वे भी इन्हीं घाटों पर आकर बैठते और खेलन थे―वर्षा के दिनों में