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विचित्र प्रबन्ध।

बिछल विछल कर गिर पड़त थे। प्रसिद्ध गायक अन्धा श्रीनिवास भी सन्ध्या के समय इन्हीं में से किसी घाट पर आकर बैठता और अपनी सरंगी बजा कर गौरी रागिनी में "गेलो गेलो दिन" यह गीत गाता था। उसके आस पास गाँव के दस पाँच आदमी भी बैठ कर गाना सुनते थे। आज ये बातें किसी को याद नहीँ हैं। गङ्गा के किनारे के टूटे हुए मन्दिरों का भी जैसे एक विशेष माहात्म्य है। आज उन मन्दिरों में देवता की मुर्तियाँ नहीं हैं। किन्तु वे स्वयं ही जटाजूट-धारी प्राचीन ऋषि के समान पवित्र और भक्ति के पात्र बन गये हैं। बीच बीच में गंगा के तौर पर गाँव हैं। उनके किनारे क़तार की क़तार मछुओं की नावे बँधी हैं। कुछ पानी में हैं, कुछ सूखे में हैँ, और कुछ किनार पर पट पड़ी हुई हैं और उनकी मरम्मत हो रही है। फूस के छाये कच्चे घर कुछ घने-पास ही पास―बने हैं। किसी किसी के आस-पास टेढ़ी मेढ़ी दीवारों से हाता सा घिरा हुआ है। दो-चार पशु चर रहे हैं। गाँव के दो-एक दुर्बल कुत्ते बेकार की तरह गंगा के किनारे इधर-उधर घूम रहे हैं। एक नङ्ग घड़ङ्ग बालक मुँह में उँगलियाँ डाले बैंगन के खेत के सामने खड़ा हुआ चुपचाप विस्मय के साथ हम लोगों के जहाज़ की ओर देख रहा है। मछुओं के लड़के छोटे छोटे जाल लिये छोटी छोटी मछलियाँ पकड़ रहे हैं। सामने ही तीर पर एक बड़ का पेड़ है, उसकी जड़ की मिट्टी नदी के प्रवाह से बह गई है। अतएव उन जड़ों के बीच में एक रहने योग्य एकान्त स्थान बन गया है। एक वृद्धा दो चार हाँड़ी और एक चटाई लिये उसीके भीतर रहती है।