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सरोजिनी की यात्रा।

अश्रुजल के बिल्लौरी चौखटे में इनको मैंने जैसे बँधा लिया है। ऐसी शोभा इस जन्म मेँ और कहीं देखने को न मिलेगी।

मेशीन की मरम्मन हो चुकी। यात्री भी स्नान-भोजन से निपट लिये। बड़ा कोलाहल करके लङ्गर उठाया गया। जहाज़ भी चल पड़ा। बाई ओर मोची-खोला के नवाब का भारी मकान और दाहनी और शिवपुर का बटानिकल गार्डन देख पड़ा। ज्यों ज्यों हम लोगों का जहाज़ दक्षिण की ओर आगे बढ़ने लगा त्यों त्यों गङ्गा की चौड़ाई भी बढ़ने लगी। दो या तीन बजन के समय हम लोगों न फल खाये। तदनन्तर, सन्ध्या के समय कहाँ ठहरना होगा, इसी विचार मेँ हम लोग लग गये। हम लोगों के दाहने- बायें से बहुत से जहाज़ झंडा उड़ाते आय और गये। उनकी गर्व- भरी चाल देखने से हम लोगों का उत्साह और भी बढ़ गया। यद्यपि हवा उलटी चल रही थी पर प्रवाह हमारे प्रतिकूल न था। हम लोगों के उत्साह के साथ साथ जहाज़ का वेग भी और अधिक बढ़ गया। जहाज़ हिलने लगा। दूर ही से हम लोग देखते थे कि बड़ी बड़ी लहरें मुँह फैलाय हम लोगों के सामने आ रही हैं। हम लोग बड़े आनन्द से उनकी प्रतीक्षा करते थे। वे बड़े ज़ोर से आकर जहाज से टकराती थीं। उनका प्रयत्न व्यर्थ हो जाता था। निष्फल क्रोध के कारण वे फेना उगलती गरजती हुई बड़े वेग से जहाज़ की बग़ल में टक्कर मारती थीं। हताश होने पर वे दो पग पीछे हट कर फिर आकर जहाज़ में टक्कर मारती थीं। हम सब लोग मिलकर यही देख रहे थे। हमने देखा कि एकाएक जहाज़ के मालिक उदास मुँह लिये घबराये हुए बड़े वेग से जहाज़ चलाने-