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विचित्र प्रबन्ध।

जिस प्रकार सृष्टि के पूर्ववर्ती अन्धकार मेँ यह विचित्र प्रकाशमय जगत् छिपा हुआ था उसी प्रकार इस बोतल के अन्धकार में भी कितनी ही प्रकाशमयी नई सृष्टियाँ छिपी हुई हैं। एक बोतल स्याही देखने से तो इतनी बातें मन में उठती है। फिर स्टीफ़न साहब के स्याही के कारख़ाने के पास खड़े होकर सोचने से तो शायद दिमाग़ ही सही नहीं रह सकता। कितनी ही पुस्तक-पुस्तिकाएँ, कितने ही पम्फ्तेट, कितने ही यश, कितने ही कलङ्क, कितने ही ज्ञान, कितने ही प्रलाप, कितने ही फाँसी के हुक्म, कितने ही युद्ध की घोषणाएँ और कितने ही प्रेमियों की प्रणय-बाताएँ इस काली स्याही के प्रवाह में प्रवाहित हो रही है। यह प्रवाह संसार को प्लावित करता हुआ बहता जाता है। मानों स्टीफ़न साहब का समूचा स्याही का कारख़ाना ही उलट पड़ा है―अब व्लाटिंग पेपर की बात याद आती है।―अच्छा, अब इस प्रवाह को लौटाना चाहिए। आओ, अब गङ्गा के प्रवाह की ओर आओ।

सच्ची घटना और उपन्याम में भेद है। अभी इस बात का परिचय लीजिाय। हम लोगों के जहाज़ को भागे पीपे का सामना करना पड़ा, तो भी यह डूबा नहीं। डूबते हुए मनुष्यों का उद्धार करने के लिए वीरता दिखाने की भी आवश्यकता नहीं हुई। प्रथम परिच्छेद में पानी में डूबकर छब्बीसवें परिच्छेद मेँ कोई सूखे में बचकर निकला नहीं। जहाज़ के डूबने से भी हम नहीं डूबे, इसका मुझे आनन्द है, पर उसे लिखने में आनन्द नहीं आता। अवश्य ही पाठकों को निराश होना पड़ेगा। पर मैं क्या करूँ, मैं डूबा नहीँ, इममें मेरा दोष नहीं है। यह काम बिल्कुल मेरे भाग्य