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विचित्र प्रबन्ध।

थी कि हम लोगों का भी इतनी दूर उतरना नहीं पड़ा। पर सहसा उसी की संभावना के सम्बन्ध में ख़याल पैदा हो आया। इस विषय में हम ज्यों ज्यों गहरा विचार करने लगे त्यों त्यों और भी हम लोगों के मन में गहरे जाने की संभावना उदय होने लगी। इसी समय सूर्यदेव भी अस्त हो गये। बरीसाल जाने के मार्ग की अपेक्षा वहाँ न जाने का मार्ग ही सीधा और समाप है―यही सोचते सोचते भैया जहाज़ की छत पर टहलने लगे। वहीं एक लपेटे हुए मोटे रस्से पर बैठ कर अँधेरे में मैं हँसी-मजाक़ का दीपक जलाने का प्रयत्न करने लगा, पर बरसात में सीली हुई दिया-सलाई की तरह वह हँसी-मज़ाक़ का मसाला बेकार सा हो गया। बहुत देर तक रगड़ने पर बीच बीच में थोंड़ो थोंड़ी चमक पैदा हो जाती थी। जब 'सरोजिनी' जहाज़ अपने यात्रियों के साथ गङ्गा-गर्भ में पङ्कमय विश्रामशय्या पर मुक्ति-लाभ कर रहा है, तब हम समाचार-पत्रों के ( Sad accident ) के कालम से किसी पैराग्राफ़ की तीन चार पंक्तियों मेँ कैसे निर्वाण- मुक्ति पा सकेंगे-यही बात बार बार हमारे हृदय में उठने लगी। इस संवाद को पढ़नवाले अनायास ही, एक चम्मच गरम चाय के साथ, कैसे पी जायँगे―इसी बात की हम कल्पना करने लगे। बन्धुगण इस लेखक के विषय में कहेंगे-आह इतना बड़ा भारी आदमी चला इसके समान और दुसरे मनुष्य का होना कठिन है। और, लेखक की पूज्य भाभी के विषय में लोग कहेंगे कि उसमेँ बहुत से दोष भी थे और गुण भी। वह चाहे जैसा ही रही हों पर घर तो सँभाले थीं! इत्यादि इत्यादि। चक्की से जैसे सफेद पीसा हुआ गया.